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कॉलेज और विश्वविद्यालयों से पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्रों की सबसे बड़ी चिंता होती है—डिग्री। कई बार परीक्षा का रिजल्ट समय पर आ जाता है, लेकिन डिग्री के लिए छात्रों को महीनों-सालों तक इंतज़ार करना पड़ता है। इसका सीधा असर सरकारी नौकरियों, प्रतियोगी परीक्षाओं और उच्च शिक्षा में प्रवेश पर पड़ता है। 

छात्रों की इसी परेशानी को देखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने एक अहम फैसला लिया है। अब सभी विश्वविद्यालयों को परीक्षा परिणाम जारी होने के 180 दिनों के भीतर डिग्री देना अनिवार्य होगा।

UGC का साफ निर्देश: समय पर डिग्री नहीं तो कार्रवाई

UGC ने देशभर के सभी विश्वविद्यालयों और उनके कुलपतियों को निर्देश जारी किया है कि रिजल्ट घोषित होने के छह महीने के अंदर छात्रों को उनकी डिग्री उपलब्ध कराई जाए। यदि कोई कॉलेज या विश्वविद्यालय इस नियम का पालन नहीं करता है, तो उसके खिलाफ नियमानुसार कार्रवाई की जाएगी।

यह आदेश बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर समेत देश की सभी राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों पर लागू होगा।

छात्रों की शिकायतों के बाद लिया गया फैसला

दरअसल, UGC को बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय सहित कई विश्वविद्यालयों के छात्रों की ओर से लगातार शिकायतें मिल रही थीं। छात्रों का कहना था कि परीक्षा पास करने के एक साल बाद भी उन्हें डिग्री नहीं मिलती, जिससे वे न तो नौकरी के लिए आवेदन कर पा रहे हैं और न ही आगे की पढ़ाई के लिए।

इन शिकायतों को गंभीरता से लेते हुए UGC ने यह स्पष्ट समय-सीमा तय की है, ताकि छात्रों का भविष्य प्रशासनिक देरी की वजह से प्रभावित न हो।

बिहार समेत कई राज्यों में गंभीर समस्या

खबरों के अनुसार बिहार की कई विश्वविद्यालयों में डिग्री जारी करने की प्रक्रिया बेहद धीमी रही है। कई मामलों में छात्रों की डिग्री वर्षों तक अटकी रहती है। बीआरएबीयू समेत अन्य विश्वविद्यालयों में भी ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जहां डिग्री में देरी के कारण छात्रों को एडमिशन और रोजगार के मौके गंवाने पड़े।

डिग्री नहीं मिलने की वजह से छात्र न तो सरकारी भर्तियों में आवेदन कर पाते हैं और न ही पीजी या अन्य प्रोफेशनल कोर्स में समय पर दाखिला ले पाते हैं।

छात्रों के लिए राहत भरा कदम

UGC का यह फैसला लाखों छात्रों के लिए राहत लेकर आया है। तय समय-सीमा लागू होने से विश्वविद्यालयों पर जवाबदेही बढ़ेगी और छात्रों को अपनी मेहनत का औपचारिक प्रमाण समय पर मिल सकेगा।

अब यह जिम्मेदारी विश्वविद्यालय प्रशासन की है कि वे नियमों का सख्ती से पालन करें, ताकि छात्रों को बार-बार दफ्तरों के चक्कर न लगाने पड़ें और उनका करियर समय पर आगे बढ़ सके।

 

भारत अब सुपरकंप्यूटर तकनीक में पूरी तरह आत्मनिर्भर बनने की दिशा में एक बड़ा कदम उठा चुका है। इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन (ISM) के प्रमुख अमितेश कुमार सिन्हा ने कहा है कि वर्ष 2030 तक भारत अपने सुपरकंप्यूटर का पूरा सिस्टम देश के भीतर ही विकसित कर लेगा, और 2032 से इन सिस्टम्स की मार्केट सेल शुरू हो जाएगी। वे Supercomputing India 2025 Conference में बोल रहे थे।

सिन्हा के अनुसार, भारत अब सिर्फ मोबाइल या टीवी ही नहीं, बल्कि उन अल्ट्रा-हाई परफॉर्मेंस कंप्यूटरों का निर्माण करना चाहता है, जिनकी मांग वैज्ञानिक अनुसंधान, रक्षा, मौसम विज्ञान और AI जैसे क्षेत्रों में तेजी से बढ़ रही है।

50% से अधिक पार्ट्स पहले से भारत में बन रहे, 2030 तक बढ़कर 70% से ऊपर

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के पास मौजूद सुपरकंप्यूटरों में आज 50% से अधिक कंपोनेंट देश में बने हैं। अगले दशक में यह हिस्सा 70% से अधिक पहुंचने का लक्ष्य रखा गया है।

सरकार ने हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए नई योजनाएं शुरू की हैं। ISM ने चिप निर्माण, पैकेजिंग और बड़े सेमीकंडक्टर फैब यूनिट्स स्थापित करने के लिए 10 प्रमुख प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है।

सिन्हा का कहना है कि “अगर हमें पूरा सुपरकंप्यूटर खुद बनाना है, तो हमें हर तकनीक और हर पार्ट में महारत हासिल करनी होगी।”

स्वदेशी सुपरकंप्यूटर से क्या बदल जाएगा?

भारत का पूरा स्वदेशी सुपरकंप्यूटर तैयार होने के बाद देश को कई अलग-अलग क्षेत्रों में सीधा लाभ मिलेगा:

- सटीक मौसम पूर्वानुमान—तूफान, बाढ़ और भारी बारिश की सही भविष्यवाणी

- नई दवाओं और वैक्सीन का तेज विकास

- रक्षा क्षेत्र में मजबूती—मिसाइल, फाइटर जेट और रणनीतिक तकनीक में उन्नति

- कृषि में मदद—फसल चयन, मौसम आधारित सलाह और स्मार्ट खेती

- शहरों में बेहतर प्लानिंग—बिजली, पानी और ट्रैफिक प्रबंधन

- लाखों हाई-टेक नौकरियां

- तकनीकी आत्मनिर्भरता, यानी दुनिया पर निर्भरता कम

यह तकनीक देश को वैश्विक टेक्नोलॉजी रेस में आगे ले जाएगी।

NSM 2.0: भारत बनाएगा अपना CPU, GPU और AI Accelerator

भारत National Supercomputing Mission (NSM 2.0) के दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है। इस चरण में स्वदेशी CPU, स्वदेशी GPU, स्वदेशी AI Accelerator और बहुविध कंप्यूटिंग के लिए अपने खुद के चिप समाधान तैयार करने का लक्ष्य है। 

सरकार अनुसंधान और स्टार्टअप को बढ़ावा देने के लिए 38,000 से अधिक GPU संस्थानों और शोधकर्ताओं को दे चुकी है। मोसेचिप (MosChip) जैसी भारतीय कंपनियां AI-सक्षम चिप डिजाइन पर काम कर रही हैं।

10 साल में भारत की इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन क्षमता कई गुना बढ़ी

पिछले दशक में भारत ने इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माण के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन 6 गुना बढ़ा, निर्यात 8 गुना बढ़ा, मोबाइल फोन निर्माण 28 गुना, और मोबाइल निर्यात में 127 गुना बढ़ोतरी हुई। 

सिन्हा ने कहा कि पहले हम सिर्फ असेंबली करते थे, अब देश में ही पार्ट्स बनने लगे हैं। भारत अब वैल्यू चेन के हर चरण में गहराई से जुड़ रहा है।

दुनिया के साथ टेक्नोलॉजी साझेदारी के लिए तैयार भारत

सिन्हा ने कहा कि भारत सेमीकंडक्टर, क्वांटम और AI जैसे क्षेत्रों में वैश्विक सहयोग चाहता है, “लेकिन इस शर्त के साथ कि तकनीक का उपयोग मानवता के हित में होना चाहिए।”

सम्मेलन में 20 देशों ने भाग लिया—बिल्कुल वैसे ही जैसे Semicon India कार्यक्रम में पूरा ग्लोबल उद्योग भारत के साथ जुड़ा था। भारत अब सिर्फ एक मैन्युफैक्चरिंग हब नहीं बनना चाहता, बल्कि दुनिया के सबसे ताकतवर सुपरकंप्यूटर बनाने वाला देश बनना चाहता है। 2030 तक इस लक्ष्य की दिशा में मजबूत प्रगति जारी है। 

राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान (NIFT) में शैक्षणिक सत्र 2026-27 के लिए स्नातक, स्नातकोत्तर, लेटरल एंट्री, कारीगर श्रेणी और पीएचडी पाठ्यक्रमों में दाखिले की प्रवेश परीक्षा NIFTEE 2026 आगामी 8 फरवरी को आयोजित की जाएगी। यह परीक्षा देशभर के 100 शहरों में कंप्यूटर आधारित और पेन-पेपर मोड, दोनों माध्यमों में होगी। विद्यार्थी अपनी सुविधा के अनुसार हिंदी या अंग्रेजी भाषा चुन सकेंगे।

आवेदन प्रक्रिया शुरू हो गई है और इच्छुक छात्र 6 जनवरी तक आवेदन कर सकते हैं। जो उम्मीदवार समयसीमा चूक जाते हैं, वे 7 से 10 जनवरी के बीच ₹5,000 विलंब शुल्क के साथ आवेदन जमा कर पाएंगे। एनटीए के अनुसार, सत्र 2026 के लिए निफ्ट संस्थानों में एडमिशन प्रक्रिया अब औपचारिक रूप से शुरू मानी जा रही है।

निफ्ट में बैचलर ऑफ डिजाइन, बैचलर ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी, मास्टर ऑफ डिजाइन, मास्टर ऑफ फैशन मैनेजमेंट और मास्टर ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी के लिए दाखिले सामान्य योग्यता और रचनात्मक योग्यता परीक्षण के आधार पर होंगे। कारीगर श्रेणी के अंतर्गत बीडेस में आवेदन निफ्ट के अलग प्रावधानों के अनुसार किया जा सकेगा। लेटरल एंट्री के जरिए विद्यार्थी बीडेस और बीई-टेक में प्रवेश पा सकेंगे। पीएचडी के लिए निफ्ट परीक्षा के बाद शोध प्रस्ताव और इंटरव्यू की प्रक्रिया होगी।

ऑनलाइन आवेदन करने से पहले छात्रों को आयु, शैक्षिक योग्यता और विषय से जुड़े पात्रता नियम ध्यान से पढ़ने होंगे। आवेदन प्रक्रिया के दौरान आधार आधारित ई-केवाईसी, स्कैन फोटो, हस्ताक्षर और लाइव फोटो अपलोड करना आवश्यक हो सकता है। दिव्यांग उम्मीदवारों को निर्धारित प्रारूप में वैध यूडीआईडी कार्ड अपलोड करना होगा। विस्तृत दिशा-निर्देश एनटीए की आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध हैं।

NIFTEE 2026 के लिए देशभर के 100 शहरों में परीक्षा केंद्र बनाए जाएंगे। इनमें उत्तर प्रदेश के आठ, उत्तराखंड के तीन, राजस्थान के पांच, पंजाब के तीन, जम्मू-कश्मीर के दो, हिमाचल प्रदेश के दो, दिल्ली, चंडीगढ़ और हरियाणा के एक-एक केंद्र शामिल हैं। 

केंद्र सरकार ने देश की उच्च शिक्षा प्रणाली में महत्वपूर्ण बदलाव करते हुए शुक्रवार को एक बड़ा कदम उठाया। सरकार ने उस नए बिल को मंजूरी दे दी है, जिसके तहत अब पूरे उच्च शिक्षा ढांचे के लिए एक ही केंद्रीय रेगुलेटर काम करेगा। यह नया ढांचा उन सभी नियामक संस्थाओं को बदल देगा, जो अभी तक अलग-अलग क्षेत्रों में उच्च शिक्षा का संचालन और पर्यवेक्षण कर रही थीं।

मौजूदा समय में UGC, AICTE और NCTE जैसी संस्थाएं विश्वविद्यालयों, तकनीकी शिक्षा और शिक्षक प्रशिक्षण को अलग-अलग दिशा देती थीं। नई व्यवस्था लागू होने के बाद इन तीनों संस्थाओं की जगह एक एकीकृत रेगुलेटर काम करेगा। अधिकारियों के अनुसार, इस बिल का नया नाम ‘विकसित भारत शिक्षा अधिक्षण’ रखा गया है, जिसे पहले HECI—Higher Education Commission of India के रूप में जाना जाता था।

नए रेगुलेटर की भूमिका को तीन बड़े हिस्सों में बांटा गया है—रेगुलेशन, एक्रेडिटेशन और प्रोफेशनल स्टैंडर्ड्स तय करना। रेगुलेशन के तहत यह संस्थानों के संचालन, कोर्स संरचना और शैक्षणिक नियमों को तय करेगा। एक्रेडिटेशन में यह विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की गुणवत्ता का मूल्यांकन, समीक्षा और रैंकिंग करेगा। वहीं, प्रोफेशनल स्टैंडर्ड्स के तहत यह शिक्षण प्रणाली, तकनीकी शिक्षा और शिक्षक प्रशिक्षण से जुड़े मानक निर्धारित करेगा, ताकि देशभर में शिक्षा की गुणवत्ता एक समान रहे।

महत्वपूर्ण बात यह है कि मेडिकल और लॉ शिक्षा इस नए रेगुलेटर के दायरे में नहीं आएंगी। इन क्षेत्रों से संबंधित मौजूदा काउंसिल्स पहले की तरह काम करती रहेंगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) में फंडिंग को भी उच्च शिक्षा संरचना का अहम हिस्सा माना गया था, लेकिन फिलहाल फंडिंग की ऑटोनॉमी संबंधित मंत्रालयों के पास ही रहने का फैसला किया गया है। भविष्य में इसे भी एक छतरी के नीचे लाने पर विचार किया जा सकता है।

इस बदलाव को लेकर शिक्षा विशेषज्ञों की राय है कि लंबे समय से उच्च शिक्षा क्षेत्र कई अलग-अलग नियामक संस्थाओं के बीच बंटा हुआ था। इससे नियमों में टकराव, अनुमोदन में देरी, गुणवत्ता मूल्यांकन में असमानता और शिक्षक प्रशिक्षण के दिशानिर्देशों में अंतर जैसी चुनौतियां सामने आती थीं। विशेषज्ञों का मानना है कि एकल रेगुलेटर की स्थापना से ये समस्याएं काफी हद तक खत्म होंगी और उच्च शिक्षा प्रणाली अधिक पारदर्शी, तेज और सुव्यवस्थित बनेगी।

सरकार का यह कदम उच्च शिक्षा को अधिक आधुनिक, सुसंगत और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने की दिशा में एक बड़ा सुधार माना जा रहा है।

 

 

- रईस अहमद 'लाली'

डिजिटल युग ने शिक्षा की दुनिया को पूरी तरह नई दिशा दी है। खासकर प्रबंधन शिक्षा, जिसे कभी क्लासरूम, केस स्टडी और फिजिकल कैंपस अनुभव से जोड़ा जाता था, अब तेजी से डिजिटल मॉडल की ओर बढ़ रही है। टेक्नोलॉजी के बढ़ते प्रभाव, उद्योगों में हो रही लगातार उथल-पुथल और बदलते कौशलों की मांग ने मैनेजमेंट एजुकेशन को नए ढांचे में ढालना शुरू कर दिया है। आने वाले वर्षों में यह क्षेत्र न केवल अधिक तकनीकी होगा, बल्कि उद्योग की जरूरतों के बेहद करीब भी आएगा।

आज कंपनियां ऐसे मैनेजर्स चाहती हैं जो सिर्फ बिज़नेस थ्योरी न जानते हों, बल्कि डेटा एनालिटिक्स, डिजिटल मार्केटिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर सिक्योरिटी और ऑटोमेशन जैसे डिजिटल कौशलों में भी निपुण हों। इसी वजह से प्रबंधन संस्थान अब पारंपरिक पाठ्यक्रमों से हटकर नई टेक्नोलॉजी आधारित मॉड्यूल शामिल कर रहे हैं। MBA और PGDM कार्यक्रमों में डेटा-आधारित निर्णय, बिज़नेस इंटेलिजेंस, AI टूल्स के उपयोग, डिजिटल लीडरशिप और वर्चुअल टीम मैनेजमेंट जैसी स्किल्स अनिवार्य बनती जा रही हैं।

डिजिटल शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि सीखने की प्रक्रिया पहले से कहीं अधिक लचीली हो गई है। वर्चुअल क्लासरूम, ऑनलाइन केस स्टडीज, सिमुलेशन लैब्स और इंटरएक्टिव प्लेटफॉर्म की मदद से छात्र वास्तविक उद्योग स्थितियों का अनुभव करते हैं। शिक्षक भी अब केवल लेक्चर देने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे डिजिटल टूल्स का उपयोग करते हुए छात्रों को ऐसे संदर्भों से जोड़ते हैं जो वास्तविक बिज़नेस दुनिया के लिए तैयार करते हैं। इससे सीखने की गुणवत्ता बढ़ी है और छात्रों की समस्या-समाधान क्षमता भी मजबूत हुई है।

AI और मशीन लर्निंग के आने से प्रबंधन शिक्षा अब व्यक्तिगत स्तर पर भी बदल रही है। सीखने की गति और रुचि के आधार पर छात्रों को कंटेंट उपलब्ध कराया जा रहा है। इससे न केवल प्रदर्शन में सुधार हो रहा है, बल्कि छात्रों को अपने करियर लक्ष्यों के अनुरूप कौशल विकसित करने का अवसर भी मिल रहा है। आने वाले समय में यह व्यक्तिगत शिक्षण (Personalized Learning) प्रबंधन शिक्षा का मुख्य आधार बन सकता है।

डिजिटल युग में प्रायोगिक अनुभव की जरूरत और भी बढ़ गई है। कंपनियां अब ऐसे युवा प्रबंधक चाहती हैं जो तकनीक के साथ सहज हों और तेजी से बदलते माहौल में निर्णय ले सकें। इसलिए संस्थान वर्चुअल इंटर्नशिप, लाइव प्रोजेक्ट्स, उद्योग सहयोग और ग्लोबल ऑनलाइन एक्सचेंज कार्यक्रमों पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। इससे छात्रों को अंतरराष्ट्रीय बाजारों की समझ मिलती है और वे बहुभाषीय, बहुसांस्कृतिक तथा डिजिटल टीमों के साथ काम करने में समर्थ बनते हैं।

प्रबंधन शिक्षा भविष्य में और अधिक अंतर-विषयक होगी। बिज़नेस, टेक्नोलॉजी, मनोविज्ञान, डिजाइन थिंकिंग और सामाजिक विज्ञान के संयोजन से ऐसे मैनेजर्स तैयार होंगे जो सिर्फ लाभ कमाने पर नहीं, बल्कि स्थायी और जिम्मेदार विकास पर ध्यान देंगे। स्टार्टअप संस्कृति, गिग इकॉनमी और डिजिटल उद्यमिता के बढ़ते प्रसार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले वर्ष नवाचार-आधारित कौशलों का समय होंगे।

कुल मिलाकर, डिजिटल युग में प्रबंधन शिक्षा तेजी से बदल रही है और यह बदलाव छात्रों के लिए नए अवसरों के द्वार खोल रहा है। यह समय केवल डिग्री प्राप्त करने का नहीं, बल्कि डिजिटल दुनिया की मांगों को समझते हुए खुद को भविष्य के नेतृत्व के लिए तैयार करने का है। 

दिल्ली विश्वविद्यालय में पीएचडी शोधार्थी लंबे समय से लाइब्रेरी में पढ़ाई को लेकर गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं। शोध से जुड़े छात्रों का कहना है कि विश्वविद्यालय की विभिन्न लाइब्रेरियों में पीएचडी छात्रों के लिए निर्धारित सीटें बेहद कम हैं। नतीजा यह है कि हर दिन बड़ी संख्या में शोधार्थियों को बैठने की जगह के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

सीटों की भारी कमी

जानकारी के मुताबिक, डीयू में 2,000 से अधिक पीएचडी शोधार्थी हैं, जबकि लाइब्रेरियों में उनके लिए केवल करीब 200 सीटें उपलब्ध हैं। शोधार्थियों का आरोप है कि इन सीमित सीटों पर भी अकसर गैर-पीएचडी छात्र बैठे रहते हैं, जबकि नियमों के अनुसार निर्धारित परिसर में केवल पीएचडी छात्र ही अध्ययन कर सकते हैं।

कई शोधार्थियों ने बताया कि सुबह से लाइब्रेरी पहुंचने के बावजूद उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ता है। समयबद्ध कार्य और शोध पत्रों की डेडलाइन के बीच सीट न मिलना उनके अकादमिक काम को सीधे प्रभावित करता है।

पानी की समस्या बनी चुनौती

छात्रों ने यह भी शिकायत की है कि लाइब्रेरी में पानी की व्यवस्था अक्सर बिगड़ी रहती है। कभी पहली मंजिल पर पानी नहीं आता, तो कभी दूसरी पर। ऐसी स्थिति में छात्रों को या तो प्यासे पढ़ना पड़ता है या बाहर जाकर पानी की व्यवस्था करनी पड़ती है, जिससे उनका समय और ध्यान दोनों प्रभावित होते हैं।

किताबों की कमी से बढ़ा तनाव

पुस्तक उपलब्धता को लेकर भी छात्रों में भारी नाराजगी है। शोधार्थियों का कहना है कि कई किताबें महीनों तक कुछ छात्रों के पास पड़ी रहती हैं और लाइब्रेरी प्रशासन इस पर सख्त कार्रवाई नहीं करता। नतीजतन, जरूरी संदर्भ पुस्तकों तक बाकी छात्रों की पहुंच नहीं हो पाती, जिससे शोध कार्य और भी मुश्किल हो जाता है।

नई लाइब्रेरी जल्द शुरू करने की योजना

डीयू के लाइब्रेरियन राजेश सिंह ने माना कि वर्तमान में शोधार्थियों के लिए सीटें काफी कम हैं। उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय पीएचडी छात्रों के लिए सुविधाओं को बढ़ाने पर काम कर रहा है।

सिंह ने जानकारी दी कि एक नई लाइब्रेरी तैयार की जा रही है, जिसकी क्षमता मौजूदा सीटों से लगभग चार गुना अधिक होगी। यह लाइब्रेरी केवल पीएचडी शोधार्थियों के लिए होगी और इसे अगले दो महीनों के भीतर शुरू करने की योजना है।

नई लाइब्रेरी खुलने के बाद शोधार्थियों को पढ़ाई के लिए बेहतर माहौल और पर्याप्त जगह मिलने की उम्मीद है, जिससे उनकी वर्तमान समस्याओं में काफी कमी आ सकती है।

 

मीडिया शिक्षक और शोधकर्ता डॉ. शशि पांडे से एडइनबॉक्स की ख़ास बातचीत  

तेज़ी से बढ़ती AI-जनित सामग्री, डीपफेक्स और लगातार बदलते सूचना पारिस्थितिकी तंत्र के दौर में न्यूज़रूम बार-बार अपनी मूल जिम्मेदारियों की कसौटी पर कसा जा रहा है। प्रत्यक्षदर्शी सूचनाओं और संपादकीय विवेक पर आधारित यह पेशा अब अभूतपूर्व तकनीकी चुनौतियों का सामना कर रहा है। इस पूरे परिवर्तन के केंद्र में एक अहम सवाल बार-बार सामने आता है: जब तकनीक झूठ को सच जैसा बना दे, तो पत्रकार सच की रक्षा कैसे करें?

एडइनबॉक्स (EdInbox) के लिए पूजा खन्ना से बातचीत में लंबे समय से मीडिया शिक्षक और शोधकर्ता रहे डॉ. शशि पांडे देशभर के न्यूज़रूम से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक हो रहे बदलावों पर अपनी राय रखते हैं। प्रैक्टिस और शिक्षण—दोनों की गहरी समझ उन्हें पत्रकार की बदलती भूमिका, मीडिया शिक्षा के भविष्य और भारत के क्षेत्रीय मीडिया पर बढ़ते दबाव को नए नजरिये से देखने पर मजबूर करती है।

डॉ. पांडे की यह राय चेतावनी भी देती है और सीख भी, और एक सरल बात को रेखांकित करती है: उपकरण बदल सकते हैं, लेकिन पत्रकारिता का नैतिक मूल कभी नहीं बदलता। एल्गोरिदमिक अव्यवस्था, भ्रामक सूचनाओं और गति आधारित ख़बरों के प्रकाशन के इस दौर में उनकी दृष्टि युवा पत्रकारों को फिर याद दिलाती है कि इस पेशे का मूल मिशन वही है—सच की पुष्टि करना और सवाल पूछना, वह भी पूरी ईमानदारी के साथ  सार्वजनिक हित में।

आज के मीडिया छात्रों के लिए, जिन्हें लगातार जटिल होते डिजिटल संसार में अपनी जगह बनानी है, उनके ये विचार सिर्फ सलाह नहीं, बल्कि नैतिक और पेशेवर अस्तित्व का एक ढांचा बन जाते हैं।

प्रश्न 1: दो दशकों से अधिक समय न्यूज़रूम और अकादमिक दुनिया में बिताने के बाद, AI-जनित कंटेंट और डीपफेक्स के दौर में आप पत्रकार की भूमिका को कैसे देखते हैं?

- अपने वर्षों के अनुभव के आधार पर मैं यह और अधिक स्पष्ट रूप से समझ पाया हूं कि डीपफेक और एआई-जनित कंटेंट के दौर में पत्रकारों की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। एक ऐसी दुनिया में जहां तस्वीरें और वीडियो आसानी से बदले जा सकते हैं, पत्रकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी विश्वसनीयता और सत्यापन सुनिश्चित करना है। इसके लिए डिजिटल फोरेंसिक, मेटाडेटा विश्लेषण और एआई-डिटेक्शन टूल्स को पारंपरिक रिपोर्टिंग तकनीकों के साथ मिलाना होगा। निष्पक्षता, समय पर त्रुटि सुधार और मानव तथा एआई इनपुट के बारे में पारदर्शिता जैसे नैतिक तत्व बेहद जरूरी हैं। तकनीक चाहे जितनी बदल जाए, लेकिन पत्रकारिता का पहला सिद्धांत—सटीक और सत्यापित जानकारी देना—हमेशा वही रहता है।

प्रश्न 2: आज ज्यादातर छात्र पारंपरिक प्रिंट की बजाय डिजिटल प्लेटफॉर्म पसंद करते हैं। ऐसे में मीडिया शिक्षा खुद को कैसे अनुकूल बनाती है ताकि छात्र मल्टीमीडिया-फर्स्ट इंडस्ट्री के लिए तैयार हों?

- आज मीडिया शिक्षा को डिजिटल-फर्स्ट दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। इसमें डिजिटल स्टोरीटेलिंग, वीडियो प्रोडक्शन, डेटा जर्नलिज़्म और सोशल मीडिया एनालिटिक्स की समझ शामिल होनी चाहिए। छात्रों को यह सीखना जरूरी है कि वे अपने ऑडियंस को कैसे जोड़ें, जानकारी की फैक्ट-चेकिंग कैसे करें और प्लेटफॉर्म-विशेष कंटेंट स्ट्रैटेजी कैसे तैयार करें। शिक्षण मॉडल भी बदल रहे हैं—अब ज्यादा फोकस प्रैक्टिकल लैब्स, न्यूज़रूम सिमुलेशन, समूह-आधारित प्रोजेक्ट्स और टूल-ड्रिवन लर्निंग पर होता है। इससे सुनिश्चित होता है कि छात्र काम के लिए तैयार, लचीले और विभिन्न डिजिटल प्लेटफॉर्म पर सफल पेशेवर बनकर निकलें।

प्रश्न 3: आपके अनुसार सिकुड़ते न्यूज़रूम और हाइपर-लोकल खबरों की बढ़ती मांग के बीच आज क्षेत्रीय मीडिया किन वास्तविक चुनौतियों का सामना कर रहा है?

-आज का क्षेत्रीय मीडिया लगातार अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। न्यूज़रूम छोटे होते जा रहे हैं, वित्तीय स्थिति अस्थिर है, और तेज़ हाइपर-लोकल खबरों की मांग लगातार बढ़ रही है। रिपोर्टरों की संख्या कम होने से खबरों की गहराई और सटीकता बनाए रखना कठिन हो जाता है। तेज़ी से बढ़ते डिजिटल प्लेटफॉर्म की प्रतिस्पर्धा ने क्षेत्रीय मीडिया के सामने भाषाई विविधता और स्थानीय संवेदनशीलताओं को संभालने की चुनौती और बढ़ा दी है। क्षेत्रीय मीडिया तभी मजबूत रह सकता है जब फील्ड रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया जाए, डिजिटल कौशलों में निवेश हो, और दीर्घकालिक राजस्व मॉडल विकसित किए जाएँ ताकि उच्च स्तर की क्षेत्रीय पत्रकारिता जारी रह सके।

प्रश्न 4: NAAC के साथ आउटरीच और समुदाय-आधारित पहलों पर काम करने के अनुभव के आधार पर, आप इस कार्यक्रम में छात्रों को सामाजिक महत्व की कहानियाँ जुटाने के लिए कैसे प्रशिक्षित करना चाहेंगे?

- फील्ड ट्रिप, सामुदायिक-आधारित रिपोर्टिंग और सहयोगात्मक प्रोजेक्ट्स पत्रकारिता के छात्रों को सामाजिक प्रभाव वाली कहानियाँ बताना सिखाते हैं। NAAC-शैली के आउटरीच के माध्यम से छात्र विभिन्न समुदायों के बीच जाकर उनकी वास्तविक जरूरतों को पहचानते हैं और स्थानीय मुद्दों पर सीधे काम करते हैं। इस प्रक्रिया में वे जिम्मेदार पत्रकारिता सीखते हैं—ऐसी रिपोर्ट तैयार करना जो हाशिए पर मौजूद लोगों की आवाज़ को मज़बूत करे। नैतिक फील्डवर्क, जमीनी रिपोर्टिंग और समाधान-आधारित स्टोरीटेलिंग के व्यावहारिक प्रशिक्षण से छात्र सामाजिक परिवर्तन लाने वाली पत्रकारिता की मजबूत क्षमता विकसित करते हैं।

प्रश्न 5: ऐसे युवा मीडिया ग्रेजुएट्स के लिए आपका क्या सुझाव है जो तेज़ी के इस दौर में भी नैतिकता और विश्वसनीयता बनाए रखना चाहते हैं, जहाँ अक्सर स्पीड, सटीकता पर भारी पड़ जाती है?

- मीडिया संगठनों में काम करने वाले युवा ग्रेजुएट्स को गति से ज्यादा सटीकता पर जोर देना चाहिए— स्रोतों की पुष्टि करें, सभी तथ्यों को दोबारा जांचें, और अप्रमाणित जानकारी को प्रकाशित करने से साफ़ इनकार करें। उच्च नैतिक मानकों का पालन जरूरी है—रिपोर्टें पारदर्शी हों और यदि कोई गलती हो जाए तो उसे तुरंत स्वीकार किया जाए। इसके लिए आलोचनात्मक सोच, धैर्य और डिजिटल वेरिफिकेशन स्किल्स की आवश्यकता होती है। तेज़ अपडेट और प्रतिस्पर्धी न्यूज़ साइकिल के बीच भी, वह पत्रकार हमेशा विश्वसनीय रहेगा जो ईमानदारी, निष्पक्षता और जिम्मेदारी को प्राथमिकता देता है।

 

इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक प्रो. के.जी. सुरेश से एडइनबॉक्स की ख़ास बातचीत

प्रो. के.जी. सुरेश वर्तमान में नई दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर के निदेशक के रूप में कार्यरत हैं। देश के इस प्रमुख सांस्कृतिक और बौद्धिक केंद्र का नेतृत्व करने के साथ ही वे निरंतर शासन, मीडिया साक्षरता, शिक्षा सुधार और भारतीय ज्ञान प्रणाली जैसे विषयों पर महत्वपूर्ण विमर्श को दिशा देते रहे हैं। इस संवाद के माध्यम से एडइनबॉक्स (EdInbox) की तरफ से निबेदिता सेन ने प्रो. के.जी. सुरेश से उनके शिक्षा के भविष्य को लेकर दृष्टिकोण, आलोचनात्मक सोच विकसित करने में संस्थानों की भूमिका और भारत की बौद्धिक विरासत कैसे वैश्विक शिक्षा ढाँचे को समृद्ध कर सकती है— इन सभी पहलुओं को समझने का प्रयास किया। प्रस्तुत है बातचीत के अंश:

प्रश्न: आप दशकों से भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली को देख रहे हैं। इसकी मौजूदा स्थिति को आप कैसे देखते हैं?

- भारत की शिक्षा व्यवस्था इस समय एक अहम मोड़ पर है। एक ओर विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और नामांकन की संख्या तेजी से बढ़ी है। दूसरी ओर गुणवत्ता, प्रासंगिकता और वहनीयता जैसी चुनौतियाँ आज भी बनी हुई हैं। हम सूचना आधारित शिक्षा से प्रयोग आधारित शिक्षा की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन यह बदलाव उद्योग और समाज की अपेक्षा के मुकाबले धीमा है।

प्रश्न: आज की शिक्षा में भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) को क्यों जरूरी माना जा रहा है?

- काफी समय से हमारी शिक्षा अपनी जड़ों से कटती जा रही थी। भारतीय ज्ञान प्रणाली केवल प्राचीन ग्रंथों तक सीमित नहीं है, बल्कि पर्यावरण, समाज, नैतिकता, गणित, आयुर्वेद, भाषा विज्ञान और सतत विकास जैसी शाखाओं का समग्र दृष्टिकोण है। IKS को शामिल करना अतीत में लौटना नहीं, बल्कि उस ज्ञान को पुनः अपनाना है जो आज के वैश्विक संकटों—जैसे जलवायु परिवर्तन, मानसिक स्वास्थ्य और सतत जीवन—के लिए बेहद प्रासंगिक है।

प्रश्न: IKS को मुख्यधारा की उच्च शिक्षा में कैसे जोड़ा जा सकता है?

- इसे केवल पाठ्यक्रम के एक औपचारिक अध्याय तक सीमित नहीं करना चाहिए। IKS को विभिन्न विषयों में एकीकृत रूप से पढ़ाया जाना चाहिए। जैसे—पर्यावरण अध्ययन में पारंपरिक जल संरक्षण पद्धतियों का अध्ययन, प्रबंधन शिक्षा में प्राचीन शासन मॉडल, और पत्रकारिता में स्वदेशी संचार परंपराओं की समझ। इससे ऐसे विद्यार्थी तैयार होंगे जो वैश्विक ढांचे और स्थानीय वास्तविकताओं—दोनों को समझते हों।

प्रश्न: ग्रेजुएट छात्रों में “एम्प्लॉयबिलिटी गैप” को लेकर अक्सर चर्चा होती है। इसका असली कारण क्या है?

- समस्या यह है कि आज भी पाठ्यक्रम में सिद्धांत ज्यादा और व्यवहारिक प्रशिक्षण बहुत कम है। छात्रों को वास्तविक समस्याओं को हल करने वाले अनुभव नहीं मिलते। शिक्षा को रटने की बजाय तर्क और समझ की ओर बढ़ना होगा। इंटर्नशिप, फील्डवर्क और बहुविषयक एक्सपोज़र को शिक्षा का मुख्य हिस्सा बनाना चाहिए, न कि औपचारिकता।

प्रश्न: डिजिटल युग में मीडिया शिक्षा कितनी महत्वपूर्ण है?

- आज के समय में, जब सूचना का अत्यधिक प्रवाह और गलत जानकारी दोनों तेजी से बढ़ रहे हैं, मीडिया शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। पत्रकारिता संस्थानों को रिपोर्टिंग और एडिटिंग के साथ-साथ डिजिटल एथिक्स, डेटा साक्षरता, फैक्ट-चेकिंग और मीडिया कानून भी सिखाना चाहिए। मीडिया केवल एक पेशा नहीं, बल्कि सामाजिक ज़िम्मेदारी है—यह बात छात्रों को समझानी होगी।

प्रश्न: पत्रकारिता और जनसंचार संस्थानों में किन बदलावों की आवश्यकता है?

- संस्थानों को पुराने पाठ्यक्रमों से आगे बढ़ना होगा। AI, डेटा एनालिटिक्स, मल्टीमीडिया स्टोरीटेलिंग, मोबाइल जर्नलिज्म और कम्युनिटी रिपोर्टिंग जैसे विषय पाठ्यक्रम का हिस्सा होने चाहिए। साथ ही, पत्रकारिता के मूल मूल्य—सत्य, निष्पक्षता और जवाबदेही—की रक्षा भी ज़रूरी है। तकनीक पत्रकारिता को सशक्त बनाए, इसे कमजोर नहीं करे।

प्रश्न: उच्च शिक्षा के पुनर्गठन में NEP 2020 की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?

- राष्ट्रीय शिक्षा नीति बेहद दूरदर्शी है। इसका लचीलापन, बहुविषयक सीखने और क्षेत्रीय भाषाओं पर जोर देना काफी महत्वपूर्ण है। लेकिन किसी भी नीति की सफलता उसके लागू होने पर निर्भर करती है। विश्वविद्यालयों को इसे समझकर लागू करने की स्वतंत्रता और प्रशिक्षण दोनों की आवश्यकता है ताकि यह केवल औपचारिकता बनकर न रह जाए।

प्रश्न: अंत में, आप युवा शिक्षकों और छात्रों को क्या सलाह देना चाहेंगे?

- शिक्षकों के लिए संदेश है—हमेशा सीखते रहें। और छात्रों के लिए—डिग्री के पीछे नहीं, बल्कि उद्देश्य के पीछे दौड़ें। शिक्षा आपको समाज के लिए उपयोगी बनाए, सिर्फ नौकरी के लिए योग्य नहीं।

 

IIMA के डायरेक्टर प्रो. भरत भास्कर से बातचीत

IIMA ने BT-MDRA की 26वीं वार्षिक रैंकिंग में देश के सर्वश्रेष्ठ बी-स्कूल का खिताब फिर हासिल किया है। इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर प्रो. भरत भास्कर के अनुसार, असली चुनौती यह नहीं कि संस्थान नंबर-वन है, बल्कि यह है कि मैनेजमेंट एजुकेशन को तेजी से बदलती तकनीक और वैश्विक बिज़नेस माहौल के अनुसार कितना तेज़ ढाल पाते हैं। उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश: 

भारत में मैनेजमेंट एजुकेशन की स्थिति को आप कैसे देखते हैं?

- हमारा मैनेजमेंट एजुकेशन इकोसिस्टम मजबूत है, लेकिन बदलाव बेहद तेज़ और व्यापक हैं। एआई, ब्लॉकचेन, रोबोटिक्स और ऑटोनॉमस सिस्टम जैसी तकनीकें कार्यस्थलों को गहराई से बदल रही हैं। इसलिए मैनेजमेंट एजुकेशन को वास्तविक कार्यस्थल की परिस्थितियों को तुरंत दर्शाना होगा—क्योंकि हम भविष्य के लीडर्स तैयार कर रहे हैं।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि मौजूदा पाठ्यक्रम से नए पाठ्यक्रम की ओर जाना कितनी तेजी से संभव हो सकेगा। ग्रेजुएट्स को बदलते सप्लाई चेन, वैश्विक व्यापार की अनिश्चितता और नीतिगत बदलावों के लिए भी तैयार रहना होगा। हम अच्छी स्थिति में हैं, लेकिन अगर मैनेजमेंट एजुकेशन को प्रासंगिक बनाए रखना है तो बदलाव की रफ्तार और बढ़ानी होगी।

IIMA के पाठ्यक्रम में बड़ा बदलाव क्या है?

- हमारा कोर्स इस तरह डिजाइन है कि छात्र वास्तविक इंडस्ट्री स्थितियों को समझें और भविष्य के बिज़नेस लीडर बनें। केस-स्टडी मेथड इसमें मुख्य भूमिका निभाता है, क्योंकि यह असल बिज़नेस चुनौतियों को क्लासरूम में लाता है।

कई बार तकनीक इंडस्ट्री से भी आगे निकल जाती है। इसलिए हम छात्रों को ऐसे लीडर बनने की ट्रेनिंग देते हैं जो इंडस्ट्री में नई तकनीकों को आगे बढ़ाएँ। पिछले साल हमने एआई इन ह्यूमन रिसोर्सेज, एआई-ड्रिवेन फिनटेक और टेक्नोलॉजी-बेस्ड ग्लोबल सप्लाई चेन मैनेजमेंट जैसे नए तकनीकी कोर्स शामिल किए हैं।

कभी इंडस्ट्री हमें आगे बढ़ाती है, और कभी हम इंडस्ट्री को—छात्रों को उन तकनीकों के लिए तैयार करके जो अभी कंपनियों ने अपनाई भी नहीं हैं।

क्या भारतीय मैनेजमेंट एजुकेशन बदलाव के लिए तैयार है?

- सिस्टम में कई स्तर हैं। टॉप संस्थान अविश्वसनीय तेजी से बदलाव अपना रहे हैं, जबकि कई अभी भी पीछे हैं। परिवर्तन पूरे इकोसिस्टम का होना चाहिए, ताकि फायदा केवल हाई-एंड इंडस्ट्री को नहीं बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था को मिले।

इस साल प्लेसमेंट को लेकर आपका आकलन क्या है? इंडस्ट्री और अकादमिक जगत कैसे प्रतिक्रिया दें?

- इंडस्ट्री से जुड़ाव सिर्फ प्लेसमेंट तक सीमित नहीं होना चाहिए। हमारा ध्यान इंडस्ट्री-व्यवहार और वास्तविक प्रैक्टिस पर है। इसलिए कोर कोर्स फैकल्टी पढ़ाते हैं और कई इलेक्ट्रिव्स इंडस्ट्री विशेषज्ञ।

फैकल्टी को रिसर्च के साथ-साथ यह भी समझना चाहिए कि नई तकनीकें संगठनों को कैसे बदल रही हैं। हमारी कंसल्टिंग और एक्जीक्यूटिव एजुकेशन गतिविधियाँ फैकल्टी को कंपनियों की समस्याओं और समाधानों से जोड़े रखती हैं।

एक्जीक्यूटिव एजुकेशन में हम सिखाते जितना हैं, उतना सीखते भी हैं—इंडस्ट्री पेशेवर वास्तविक अनुभव लेकर आते हैं। इसलिए इंडस्ट्री-अकादमिक सहयोग जितना व्यापक होगा, प्लेसमेंट उतने ही स्वाभाविक रूप से बेहतर होंगे।

भविष्य का मैनेजमेंट क्लासरूम कैसा होगा?

- कोविड से पहले ही तकनीक ने हाइब्रिड और ऑनलाइन क्लासरूम को संभव बनाया था। महामारी ने इसे गति दे दी।

ब्लेंडेड लर्निंग दो कारणों से तेजी से बढ़ेगी:

  1. हमारी अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ रहा है—केवल नए ग्रेजुएट्स नहीं, बल्कि मौजूदा प्रोफेशनल्स को भी नई तकनीक और प्रबंधन कौशल में ट्रेनिंग की जरूरत है।
  2. लीडरशिप ट्रेनिंग की मांग बहुत अधिक है—मिड और सीनियर-मैनेजमेंट के लिए हाइब्रिड मॉडल सबसे उपयुक्त है।

यही कारण है कि हमने Blended Post Graduate Programme in Management (ब्लेंडेड MBA-इक्विवेलेंट प्रोग्राम) लॉन्च किया, जो अब दूसरे बैच में है। हम जल्द MBA in Business Analytics and AI भी शुरू कर रहे हैं, क्योंकि आज का मैनेजर टेक-सैवी होना जरूरी है। भारत को वैश्विक नेतृत्व देने के लिए ब्लेंडेड लर्निंग अब अनिवार्य है।

IIM अहमदाबाद के लिए आदर्श छात्र कैसा होना चाहिए?

- आदर्श उम्मीदवार वह है जो 1–2 साल का इंडस्ट्री अनुभव रखता हो, क्योंकि इससे वह संगठनात्मक व्यवहार समझ पाता है। ताज़ा ग्रेजुएट्स अक्सर इस हिस्से में संघर्ष करते हैं। IIT-ग्रेजुएट्स उपयुक्त हैं, लेकिन आदर्श छात्र केवल IIT से होना जरूरी नहीं। आज तकनीक को लागू करने की क्षमता ज्यादा मायने रखती है।

हमारा सिद्धांत है: Vidya Viniyoga Vikasa—यानी ज्ञान के उपयोग से विकास।

Commerce, Science या Arts—किसी भी बैकग्राउंड से छात्र आ सकता है, बशर्ते उसका माइंडसेट खुला हो और वह तकनीक को अपनाने व लागू करने के लिए तैयार हो।

क्या CAT एग्ज़ाम ऐसे छात्रों का चयन करने में मदद करता है?

- CAT एक फिल्टर की तरह काम करता है। शॉर्टलिस्ट के बाद इंटरव्यू, ग्रुप डिस्कशन और केस राइटिंग से छात्र की सोच का आकलन किया जाता है। CAT विश्लेषणात्मक और भाषा कौशल की जांच करती है, जो बिज़नेस समस्याएँ हल करने में महत्वपूर्ण हैं।

IIMA के दुबई कैंपस के बाद मल्टी-कैंपस मॉडल को कैसे देखते हैं?

- भारत को ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करना है। दुबई इस रणनीति का हिस्सा है—हमारे ज्ञान से वैश्विक दक्षिण को लाभ मिले और भारत के लिए भी नए अवसर बनें। विदेशी कैंपस हमें क्षेत्रीय बिज़नेस संदर्भ को समझने, नए केस स्टडी तैयार करने और वैश्विक नेतृत्व विकसित करने में मदद करता है।

नई शिक्षा नीति के तहत भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों की एंट्री को आप कैसे देखते हैं?

- मैं इसका स्वागत करता हूँ। भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए मौजूदा शिक्षा क्षमता पर्याप्त नहीं है। कई छात्र विदेश जाते हैं, जबकि अगर वही गुणवत्ता वाली शिक्षा भारत में मिले तो लागत भी कम होगी और विदेशी मुद्रा भी देश में रहेगी। लेकिन यह सुनिश्चित होना चाहिए कि उनकी गुणवत्ता मूल कैंपस के बराबर हो। अगर गुणवत्ता बनी रहती है, तो विदेशी विश्वविद्यालय सभी के लिए फायदेमंद हैं।

 

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Management education needs to change rapidly: IIMA Director Prof. Bharat Bhaskar

एलायंस यूनिवर्सिटी में सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस इन इंडियन नॉलेज सिस्टम्स (CoE IKS) के निदेशक प्रो. (डॉ.) ए.एम. श्रीधरन से खास बातचीत 

ऐसे समय में जब दुनिया नई और जटिल चुनौतियों का सामना कर रही है, भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) भारत की गहरी सांस्कृतिक विरासत पर आधारित हल प्रदान करती है। बेंगलुरु के एलायंस यूनिवर्सिटी में सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस इन इंडियन नॉलेज सिस्टम्स (CoE IKS) के निदेशक और कन्नूर विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और मलयालम विभागाध्यक्ष प्रो. (डॉ.) ए. एम. श्रीधरन का मानना है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान को आधुनिक आवश्यकताओं के साथ जोड़ना समय की मांग है। एडइनबॉक्स (EdInbox) के लिए कनिष्का से इस खास इंटरव्यू में उन्होंने NEP 2020 के संदर्भ में भारतीय ज्ञान प्रणाली (Indian Knowledge Systems) की भूमिका, उपयोगिता और भविष्य की दिशा पर विस्तार से चर्चा की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश: 

प्रश्न 1: आज की शिक्षा व्यवस्था में भारतीय ज्ञान प्रणालियों को आप कैसे परिभाषित करते हैं? और आधुनिक भारत के लिए इन परंपराओं को दोबारा समझना क्यों ज़रूरी है?

- भारतीय ज्ञान प्रणाली उन विशाल और परस्पर जुड़े बौद्धिक परंपराओं का समूह है, जो हजारों वर्षों में भारत में विकसित हुईं और जिनमें दर्शन, कला, विज्ञान, पर्यावरण, भाषा, शासन, वास्तुकला और चिकित्सा जैसे अनेक क्षेत्र शामिल हैं। आज इन परंपराओं को बीते समय की वस्तु की तरह नहीं बल्कि एक जीवित ढांचे की तरह देखा जा रहा है, जो समग्र, टिकाऊ और नैतिक सोच को बढ़ावा देता है। इन परंपराओं को दोबारा समझने का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इससे भारत अपनी बौद्धिक विरासत को दुनिया के सामने स्पष्ट रूप से प्रस्तुत कर सकता है, साथ ही वैश्विक शोध को विविध दृष्टिकोणों से समृद्ध कर सकता है।

प्रश्न 2: क्या भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) केवल इतिहास तक सीमित है? तकनीक, प्रबंधन, पर्यावरण, मनोविज्ञान या वास्तुकला जैसे आधुनिक क्षेत्रों में इसकी क्या भूमिका है?

- कई छात्रों को लगता है कि भारतीय ज्ञान प्रणाली सिर्फ इतिहास है, जबकि सच यह है कि इसकी अवधारणाएँ आज की तकनीक, प्रबंधन, पर्यावरण, मनोविज्ञान और वास्तुकला जैसे आधुनिक क्षेत्रों में भी बेहद उपयोगी हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी के सिद्धांत आज कम्प्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स और मशीन लर्निंग के कई मॉडलों को प्रभावित करते हैं। न्याय दर्शन की तर्क पद्धतियाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में रीजनिंग और पैटर्न समझने में मदद करती हैं। प्रबंधन क्षेत्र में अर्थशास्त्र से नेतृत्व, निर्णय-प्रक्रिया, कूटनीति और आर्थिक शासन के कई मॉडल मिलते हैं। पर्यावरण विज्ञान में पारंपरिक जल प्रबंधन और टिकाऊ कृषि आज भी प्रभावी रूप से लागू किए जा सकते हैं। भारतीय मनोविज्ञान की जड़ें गीता, योगसूत्र और नाट्यशास्त्र में हैं, जो भावनात्मक संतुलन और तनाव प्रबंधन पर गहरा प्रभाव डालती हैं। वास्तुकला और डिजाइन में भी आज स्थानीय सामग्री और वास्तु सिद्धांतों का उपयोग जलवायु-अनुकूल संरचनाएँ बनाने के लिए किया जा रहा है।

प्रश्न 3: ऐसे कौन-से कम चर्चित उदाहरण हैं जिन्हें युवा सीखकर व्यावहारिक लाभ उठा सकते हैं?

- छात्रों को शुल्ब सूत्र जैसे ग्रंथों को अवश्य पढ़ना चाहिए, जिनमें कई ऐसे ज्यामितीय सिद्धांत मिलते हैं जो आधुनिक अवधारणाओं से भी पहले लिखे गए थे। कृषि संबंधी ज्ञान के लिए कृषि-पराशर और वृक्षायुर्वेद जैसे ग्रंथ मिट्टी की देखभाल, बीज संरक्षण और जलवायु के अनुरूप खेती करने की तकनीक बताते हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र में आयुर्वेद की दिनचर्या और ऋतुचर्या जैसे सिद्धांत आज की लाइफस्टाइल समस्याओं से निपटने में बेहद प्रभावी माने जाते हैं और प्रिवेंटिव हेल्थ के रूप में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

प्रश्न 4: छात्र और पेशेवर भारतीय ज्ञान प्रणाली को अपने प्रोजेक्ट्स और कार्यों में कैसे शामिल कर सकते हैं?

- भारतीय ज्ञान प्रणाली को अपनाने का सबसे अच्छा तरीका है समग्र दृष्टि विकसित करना, संदर्भ को समझना और समस्याओं को अलग-अलग हिस्सों में न देखकर एक-दूसरे से जुड़े रूप में देखना। भारतीय परंपराओं पर आधारित शोध पद्धतियों में फील्डवर्क, मौखिक परंपराओं का अध्ययन, समुदायों से संवाद और अनुभव आधारित सीखने को महत्व दिया जाता है। यह तरीका विशेष रूप से समाज विज्ञान, मानव विज्ञान और पर्यावरणीय शोध में अत्यंत प्रभावी होता है। पंचकोश मॉडल व्यक्ति और संगठन दोनों के व्यवहार और स्वास्थ्य को समझने का समग्र तरीका प्रदान करता है, जबकि त्रिगुण सिद्धांत मानव प्रवृत्तियों और निर्णय लेने के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने में उपयोगी है। भारतीय तर्क प्रणाली से छात्र अपने विचारों को बेहतर ढंग से संरचित करना सीख सकते हैं। वास्तुकला छात्र वास्तु के आधार पर स्पेस प्लानिंग सीख सकते हैं, डिजाइन छात्र पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र से प्रेरणा ले सकते हैं, प्रबंधन के क्षेत्र में गीता-आधारित नेतृत्व मॉडल अपनाए जा सकते हैं और कॉर्पोरेट सेक्टर योग और माइंडफुलनेस को वेलनेस प्रोग्रामों में शामिल कर सकता है। भारतीय ज्ञान प्रणाली को केवल सजावट या परंपरा के रूप में नहीं बल्कि समस्या समाधान के एक व्यावहारिक उपकरण के रूप में अपनाया जाना चाहिए।

प्रश्न 5: भारतीय ज्ञान प्रणाली को समझने के लिए किन विषयों और कौशलों की आवश्यकता होती है?

- IKS को समझने के लिए बहुविषयक दृष्टिकोण अनिवार्य है क्योंकि यह क्षेत्र मानविकी, विज्ञान और रचनात्मक विषयों को एक साथ जोड़ता है। छात्रों को भारतीय दार्शनिक परंपराओं—विशेषकर न्याय, सांख्य और वेदांत—का आधारभूत ज्ञान होना चाहिए क्योंकि ये भारतीय ज्ञान प्रणाली की वैचारिक नींव हैं। संस्कृत या किसी शास्त्रीय भाषा का आधार होने से उन्हें मूल ग्रंथों को सीधे समझने में मदद मिलती है। शोध कौशल, फील्ड अध्ययन, दस्तावेज़ीकरण, तुलना और विश्लेषण की क्षमता अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही सृजनशीलता, सांस्कृतिक समझ, नैतिकता और विभिन्न विचारों को एक साथ जोड़कर देखने की क्षमता भी आवश्यक है। विज्ञान का इतिहास, सौंदर्यशास्त्र, पर्यावरण, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान और विरासत अध्ययन जैसे विषयों का आधार IKS को वैश्विक संदर्भ में रखने में मदद करता है।

प्रश्न 6: वर्तमान में भारतीय विश्वविद्यालय भारतीय ज्ञान प्रणाली आधारित दृष्टिकोण कैसे अपना रहे हैं? भविष्य में क्या संभावनाएँ हैं? 

- NEP-2020 के बाद कई विश्वविद्यालय भारतीय दर्शन, पारंपरिक विज्ञान, कला और समाज से जुड़े नए कोर्स शुरू कर रहे हैं। आने वाले वर्षों में ऐसे पेशेवरों की भारी आवश्यकता होगी, जो परंपरागत भारतीय ज्ञान को आधुनिक तकनीक और वैश्विक मानकों के साथ जोड़कर नए नवाचारों और समाधान तैयार कर सकें। 

प्रश्न 7: छात्रों के मन में करियर को लेकर असमंजस रहता है। भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) के अध्ययन से कौन-कौन से करियर विकल्प खुलते हैं?

- IKS कोई सीमित क्षेत्र नहीं है, बल्कि यह छात्रों को कई विविध करियर विकल्प उपलब्ध कराता है। अकादमिक क्षेत्र में छात्र शोधकर्ता, शिक्षक, पांडुलिपि विशेषज्ञ, संरक्षण विशेषज्ञ, भाषाविद् या सांस्कृतिक इतिहासकार बन सकते हैं। इसके अलावा मनोविज्ञान में योग-आधारित मॉडल पर काम करने वाले विशेषज्ञ, वास्तुकला में वास्तु को समझने वाले आर्किटेक्ट, पर्यावरण क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान आधारित शोधकर्ता, तथा परफॉर्मिंग आर्ट्स से जुड़े विद्वान भी भारतीय ज्ञान प्रणाली के आधार पर अपना करियर बना सकते हैं। अकादमिक क्षेत्र के बाहर भी IKS हेरिटेज टूरिज़्म, संग्रहालय प्रबंधन, पारंपरिक कला उद्यम, योग और वेलनेस इंडस्ट्री, पोषण सलाह, नेतृत्व प्रशिक्षण, नीति परामर्श, ग्रामीण विकास, डिजिटल आर्काइविंग और डेटा आधारित सांस्कृतिक अध्ययनों में कई अवसर खोलता है। डिजिटल ह्यूमैनिटीज़ और AI के विस्तार के साथ ज्ञान मैपिंग और सांस्कृतिक डेटा विश्लेषण जैसे नए करियर भी तेजी से उभर रहे हैं।

प्रश्न 8: AI और डिजिटल ह्यूमैनिटीज़ के दौर में तकनीक भारत के पारंपरिक ज्ञान को कैसे संरक्षित कर सकती है?

- AI और डिजिटल ह्यूमैनिटीज़ भारतीय ज्ञान प्रणाली के संरक्षण और प्रसार के तरीके को पूरी तरह बदल रही हैं। आज आधुनिक OCR इंजन संस्कृत और विभिन्न भारतीय भाषाओं को पढ़ने में सक्षम हैं, जिससे दुर्लभ पांडुलिपियों को डिजिटल रूप में सुरक्षित किया जा सकता है। तकनीक प्राचीन ज्ञान और आधुनिक दुनिया के बीच सेतु का काम करती है और उससे न सिर्फ पुरानी सामग्री संरक्षित होती है, बल्कि नई व्याख्याओं और नवाचारों के लिए भी रास्ते खुलते हैं। 

भारत जब वैश्विक ज्ञान शक्ति बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा है, तब देश की उच्च शिक्षा एक बड़े मोड़ पर खड़ी है। इस बदलाव को सबसे स्पष्ट रूप से समझाने वाले नामों में से एक हैं डॉ. संकु बोससिस्टर निवेदिता यूनिवर्सिटी (SNU) के वाइस चांसलर और टेक्नो इंडिया के ग्रुप CEO। लाइफ-रेडी एजुकेशन और इंडस्ट्री 5.0 के लिए मानवीय-केंद्रित सीखने पर आधारित उनकी सोच ने उन्हें इस क्षेत्र का एक अग्रणी विचारक बना दिया है।

एडइनबॉक्स (EdInbox) की बातचीत में डॉ. बोस ने बताया कि भारत को अपनी सोच में तुरंत बदलाव क्यों चाहिए, SNU को किस तरह “लाइफ-रेडी टैलेंट फैक्ट्री” के रूप में बदला जा रहा है, और 2035 तक वे भारत के युवाओं के लिए कैसी विरासत छोड़ना चाहते हैं। 

1. भारतीय उच्च शिक्षा में सबसे बड़ा जरूरी बदलाव

डॉ. संकु बोस: 

“भारत को डिग्री-रेडी एजुकेशन से आगे बढ़कर लाइफ-रेडी एजुकेशन अपनानी होगी। दुनिया भर में विश्वविद्यालय अब सिर्फ सिलेबस, परीक्षाओं या पारंपरिक कक्षाओं से नहीं आंकें जाते, बल्कि इस बात से कि वे छात्रों के जीवन में क्या बदलाव लाते हैं —आत्मविश्वास, रचनात्मकता, रोजगार क्षमता, वैश्विक समझ और मूल्य।”

उन्होंने कहा कि हमें पूछना बंद करना चाहिए — “आपने क्या पढ़ा?” और पूछना शुरू करना चाहिए — “क्या आप लाइफ-रेडी हैं?”

इसके लिए वे C3P फ्रेमवर्क को भारत की शिक्षा का आधार मानते हैं:

Curiosity (जिज्ञासा): सवाल पूछने और खोज करने का साहस

Creativity (रचनात्मकता): कल्पना कर समाधान बनाने की क्षमता

Compassion (दया व संवेदना): नैतिकता, सहानुभूति और मानवता

Purpose (उद्देश्य): क्यों सीखना है और समाज में कैसे योगदान देना है

डॉ. बोस कहते हैं कि यदि भारत इन चार क्षमताओं को उसी गंभीरता से शामिल करे, जैसे डिग्री को दी जाती है, तो हम वैश्विक मानकों को न केवल छू सकते हैं बल्कि उनसे आगे भी जा सकते हैं।

2. शिक्षा को उद्देश्य से जोड़ना, केवल व्यवसाय न बनने देना

डॉ. बोस:

“मेरी प्राथमिक जिम्मेदारी शिक्षा की पवित्रता बनाए रखना है। डिग्री योग्यता देती है, लेकिन उद्देश्य-आधारित शिक्षा प्रभाव पैदा करती है।”

टेक्नो इंडिया और SNU दोनों में हर कार्यक्रम को C3P लेंस से परखा जाता है:

क्या हम जिज्ञासा बढ़ा रहे हैं?

क्या रचनात्मकता को बढ़ावा दे रहे हैं?

क्या हम नैतिकता और संवेदना मजबूत कर रहे हैं?

क्या हम छात्रों को उद्देश्यपूर्ण बना रहे हैं?

उनका मानना है कि—जब संस्थान उद्देश्य से चलते हैं, तो उत्कृष्टता अपने आप आती है।

3. SNU को इंडस्ट्री 5.0 के लिए टैलेंट हब में बदलने की पहल

डॉ. बोस:

“इंडस्ट्री 5.0 में तकनीक इंसान की जगह नहीं लेती, बल्कि मानव बुद्धिमत्ता को और मजबूत बनाती है। इसलिए SNU को लाइफ-रेडी स्किल्स और C3P क्षमताओं पर दोबारा ढाला जा रहा है।”

मुख्य पहलें:

  1. लाइफ-रेडी करिकुलम

समस्या समाधान, भावनात्मक बुद्धिमत्ता, मूल्यों और भविष्य की स्किल्स का समावेश।

  1. स्कूल ऑफ लाइफलॉन्ग लर्निंग (लॉन्च: जनवरी 2026)

एआई टूल्स, डिजिटल स्किल्स, कम्युनिकेशन, लीडरशिप और करियर रेडीनेस में माइक्रो-क्रेडेंशियल्स।

  1. C3P टैलेंट डेवलपमेंट मॉडल

जिज्ञासा आधारित खोज, क्रिएटिविटी स्टूडियो, सामुदायिक कार्य और उद्देश्य-आधारित करियर प्लानिंग।

  1. इंडस्ट्री इमर्शन और को-ऑप मॉडल

छात्र 6–12 महीने उद्योग में बिताते हैं और वास्तविक कौशल अर्जित करते हैं।

  1. डीप टेक लैब्स और हाई-वैल्यू सुविधाएं

AR/VR, VLSI, iOS, Salesforce, Green DevOps जैसी अत्याधुनिक लैब्स — कौशल विकास के लिए, न कि केवल डिग्री के लिए।

“अब SNU डिग्री फैक्ट्री नहीं है, बल्कि लाइफ-रेडी और फ्यूचर-रेडी टैलेंट फैक्ट्री बन रहा है।”

4. टेक्नो इंडिया जैसे बड़े शैक्षिक समूह को एक दिशा में लाना

डॉ. बोस:

“चुनौती आकार नहीं है, चुनौती उद्देश्य को एक दिशा में लेकर चलना है। पूरे समूह में लाइफ-रेडी लर्निंग फिलॉसफी को C3P फ्रेमवर्क के साथ लागू किया गया है।”

रणनीति में शामिल है:

एकीकृत विज़न: सभी संस्थानों में जिज्ञासा, रचनात्मकता, संवेदना और उद्देश्य

विकेंद्रीकृत नवाचार: स्वायत्तता के साथ साझा मूल्य

डेटा-आधारित नेतृत्व: डैशबोर्ड, ऑडिट, KPI और शैक्षणिक गवर्नेंस

सांस्कृतिक समरूपता: फैकल्टी प्रशिक्षण, नेतृत्व मार्गदर्शन और मूल्य शिक्षा

“टेक्नो इंडिया के किसी भी संस्थान में छात्र प्रवेश करे, उसे एक ही मूल भावना मिले — लाइफ-रेडी + C3P एजुकेशन।”

5. 2035 की विरासत: आज के छात्रों को क्या बदलना होगा

डॉ. बोस:

“मेरा लक्ष्य है—लाइफ-रेडी भारत का निर्माण। ऐसे छात्र जो आत्मविश्वासी हों, संवेदनशील हों और वैश्विक स्तर पर सक्षम हों। एक ऐसी पीढ़ी जो C3P को जीती हो।”

वे दो जरूरी मानसिक परिवर्तनों पर जोर देते हैं:

  1. ‘मार्क्स-रेडी’ से ‘लाइफ-रेडी’ बनना

मार्क्स करियर शुरू करते हैं, जीवन कौशल उसे आगे बढ़ाते हैं।

  1. ‘जॉब-सीकिंग’ से ‘प्रॉब्लम-सॉल्विंग’ की ओर बढ़ना

नौकरी चाहने वाले प्रतिस्पर्धा करते हैं, समस्या सुलझाने वाले नेतृत्व करते हैं।

उनका स्पष्ट संदेश— “अगर भारत के युवा लाइफ-रेडी लर्निंग और C3P मूल्यों को अपनाते हैं, तो 2035 तक भारत केवल वैश्विक ज्ञान अर्थव्यवस्था में हिस्सा नहीं लेगा—

भारत उसे दिशा देगा।”   

ख्यात मेंटल हेल्थ काउंसलर मोन्ट्यूब सेतलाकू से ख़ास बातचीत 

भारत में हाल के महीनों में छात्र आत्महत्या के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। यह एक गहरी चिंता का विषय है, जो इस बात पर सवाल उठाता है कि आखिर बच्चे और युवा इतनी कम उम्र में मानसिक रूप से क्यों टूट रहे हैं। इस मुद्दे को समझने के लिए एडइनबॉक्स (EdInbox) ने बातचीत की मेंटल हेल्थ काउंसलर मोन्ट्यूब सेतलाकू (Montube Setlhaku) से। श्री मोन्ट्यूब मेंटल वेलनेस प्रैक्टिशनर के रूप में ख्यात हैं और दक्षिण अफ्रीका स्थित मेंटल हेल्थ ग्लोबल इंस्टीट्यूट और न्यू मोटिवेशन अकेडमी से सम्बद्ध हैं। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

प्रश्न 1. हाल के महीनों में भारत में छात्र आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आप इस ट्रेंड को कैसे देखते हैं? इसके पीछे प्रमुख कारण क्या हैं?

उत्तर: हाल के महीनों में भारत में छात्र आत्महत्याओं में आई बढ़ोतरी कई गहरे कारणों की ओर संकेत करती है। स्कूल से कॉलेज तक का बदलाव कई युवाओं के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। इस दौरान सहपाठी बदलते हैं, परिवार से दूरी बढ़ती है, नई संस्कृति और जीवनशैली से तालमेल बैठाना पड़ता है और पढ़ाई का दबाव भी बढ़ जाता है। पिछले कुछ वर्षों में कॉलेज छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ पहले से कहीं अधिक बढ़ी हैं। कई किशोर कॉलेज में प्रवेश से ठीक पहले ही ऐसी मानसिक कठिनाइयों से जूझ रहे होते हैं, जो उनके दैनिक जीवन और पढ़ाई दोनों पर गंभीर प्रभाव डालती हैं।

इस समस्या के पीछे कई प्रमुख कारण हैं। आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों से आने वाले छात्रों को पढ़ाई के संसाधन आसानी से उपलब्ध नहीं होते, जिससे उनमें तनाव, चिंता और अवसाद बढ़ता है, खासकर जब वे अपने संपन्न साथियों से तुलना करते हैं। इसके अलावा, अलग-अलग जातीय या सामाजिक पृष्ठभूमि के छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य सहायता लेने की स्वीकार्यता और पहुंच अलग होती है। धार्मिक अल्पसंख्यक छात्रों को कई बार भेदभाव या बुलिंग का सामना करना पड़ता है, जो उनकी मानसिक स्थिति को और खराब करता है। दिव्यांग छात्रों के लिए स्थिति और गंभीर होती है, क्योंकि उन्हें अधिक मानसिक चुनौतियों, साथियों की प्रताड़ना, चिंता, अवसाद और अकादमिक तनाव का सामना करना पड़ता है। इन सभी कारणों से उनमें आत्महत्या के विचार और स्वयं को नुकसान पहुंचाने की घटनाएँ भी बढ़ जाती हैं

कुल मिलाकर, घर से दूर रहने का तनाव, शैक्षणिक दबाव, सामाजिक असमानताएँ, भेदभाव, और संस्थागत तैयारी की कमी—ये सभी मिलकर छात्रों की मानसिक सेहत को कमजोर करते हैं और भारत में बढ़ते आत्महत्या मामलों की एक बड़ी वजह बनते हैं।

प्रश्न 2. अकादमिक दबाव छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को कितना प्रभावित कर रहा है?

उत्तर: छात्रों की मानसिक सेहत पर अकादमिक दबाव का असर बहुत गहरा होता है। पढ़ाई का बढ़ता बोझ न केवल मानसिक स्वास्थ्य को कमजोर करता है, बल्कि छात्रों की भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर भी सीधा प्रभाव डालता है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता यानी अपनी भावनाओं को पहचानने, समझने, नियंत्रित करने और सही तरीके से व्यक्त करने की क्षमता। जब छात्र भावनात्मक रूप से मजबूत होते हैं, तो वे आत्म-जागरूकता, आत्म-नियंत्रण, प्रेरणा, सहानुभूति और सामाजिक कौशल जैसे गुण दिखाते हैं। लेकिन जब पढ़ाई और प्रदर्शन का दबाव अत्यधिक बढ़ जाता है, तो ये सभी क्षमताएँ धीरे-धीरे कमजोर होने लगती हैं। इससे छात्रों में तनाव झेलने की क्षमता कम हो जाती है, वे जल्दी टूट जाते हैं, आत्मविश्वास घटने लगता है और मानसिक परेशानी बढ़ती जाती है।

वहीं जिन छात्रों की भावनात्मक बुद्धिमत्ता मजबूत होती है, वे चुनौतियों का सामना बेहतर तरीके से कर पाते हैं। ऐसे छात्र रिश्तों में संतुलन बनाए रखते हैं, नेतृत्व क्षमता दिखाते हैं, सही फैसले लेते हैं, विवादों को शांति से संभालते हैं और बदलती परिस्थितियों में खुद को ढाल लेते हैं। इसलिए यह साफ है कि अत्यधिक अकादमिक दबाव छात्रों की मानसिक सेहत के साथ-साथ उनके भावनात्मक विकास में भी बाधा डालता है, जबकि संतुलित माहौल उन्हें अधिक स्थिर और मजबूत बनाता है।

प्रश्न 3. क्या आपको लगता है कि माता-पिता की अपेक्षाएँ और तुलना संस्कृति छात्रों के भावनात्मक तनाव में इजाफा कर रही हैं?

उत्तर: हां, माता-पिता की बढ़ी हुई उम्मीदें और तुलना की संस्कृति छात्रों के भावनात्मक तनाव को काफी बढ़ा देती हैं। जब बच्चों को पर्याप्त समर्थन नहीं मिलता और उनकी लगातार तुलना दूसरों से की जाती है, तो वे खुद को अवमूल्यित या असक्षम महसूस करने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे समाज और परिवार से दूर हो जाते हैं, उनमें चिंता, तनाव, अवसाद और उदासी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। पढ़ाई में रुचि कम हो जाती है और उनके व्यक्तित्व में बदलाव आने लगते हैं। इसलिए यह साफ है कि माता-पिता की अधिक उम्मीदें और तुलना की मानसिकता बच्चों के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालती हैं।

प्रश्न 4. क्या स्कूल, कॉलेज और कोचिंग सेंटर छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को संभालने के लिए पर्याप्त तैयार हैं? 

उत्तर: अफसोस की बात है कि अधिकतर स्कूल, कॉलेज और कोचिंग संस्थान मानसिक स्वास्थ्य के समर्थन के मामले में पर्याप्त तैयार नहीं हैं। कई शिक्षक और स्टाफ स्वयं मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक बुद्धिमत्ता के प्रशिक्षण से वंचित होते हैं, जिससे उनका व्यक्तिगत तनाव छात्रों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। यह अक्सर कठोर व्यवहार, कम भावनात्मक समर्थन और संघर्षपूर्ण इंटरैक्शन के रूप में सामने आता है। इसके अलावा, अधिकांश कोचिंग संस्थान तब तक मानसिक स्वास्थ्य सत्र आयोजित नहीं करते जब तक उन्हें इसके लिए वित्तीय सहायता न मिले। शिक्षकों और स्टाफ को गैर-शैक्षणिक बाधाओं को संभालने के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं होती, और यही कारण है कि छात्र आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं में इजाफा हो रहा है।

प्रश्न 5. सोशल मीडिया छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित कर रहा है?

उत्तर: सोशल मीडिया अक्सर असली से हटकर और भ्रामक जीवनशैली पेश करता है। कई छात्र इन झूठे या सजाए हुए चित्रों और पोस्टों को वास्तविक मान लेते हैं और अपनी तुलना दूसरों से करने लगते हैं, जिससे उनकी मानसिक सेहत और भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप छात्रों में चिंता, अवसाद, आत्मविश्वास की कमी और अकेलापन बढ़ सकता है। ऑनलाइन बुलिंग भी एक बड़ा खतरा है, जो छात्रों में डर, भ्रम और कभी-कभी आत्म-विनाशकारी व्यवहार को जन्म देता है। इसके अलावा, सोशल मीडिया पर असली से हटकर खूबसूरती और शरीर की छवि पेश करने वाले फिल्टर और मानक छात्रों में खराब बॉडी इमेज और आत्म-संतोष की कमी पैदा करते हैं। लगातार दूसरों की जीवनशैली देखकर “फियर ऑफ मिसिंग आउट” या FOMO की भावना भी उत्पन्न होती है, जिससे छात्रों को लगता है कि उनका जीवन कम रोचक या असंतोषजनक है।

प्रश्न 6. माता-पिता और शिक्षक किन प्रारंभिक चेतावनी संकेतों पर ध्यान दें कि पता चल सके कि छात्र मानसिक या भावनात्मक तनाव में है?

उत्तर: माता-पिता और शिक्षकों को छात्रों के मानसिक या भावनात्मक तनाव की पहचान करने के लिए उनके व्यवहार में बदलावों पर ध्यान देना चाहिए। अक्सर जब छात्र अपनी भावनाओं को नियंत्रित नहीं कर पाते—यानी अपने गुस्से, चिंता, उदासी या अन्य भावनाओं को समझने, संभालने और सही तरीके से व्यक्त करने में असमर्थ होते हैं—तो यह एक बड़ा चेतावनी संकेत होता है। ऐसे छात्रों में भावनात्मक संतुलन खोने, तनाव से निपटने में असमर्थता, आत्म-नियंत्रण की कमी, आवेगपूर्ण प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार संबंधी कठिनाइयाँ देखी जा सकती हैं। इसके साथ ही उनमें मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ, जैसे गुस्सा, चिंता, उदासी जो धीरे-धीरे अवसाद में बदल सकती हैं, रिश्तों में खटास, आक्रामक संचार, दूसरों की बात न सुन पाना और झगड़ों में वृद्धि भी दिखाई दे सकती है। इन प्रारंभिक संकेतों को पहचानकर माता-पिता और शिक्षक समय रहते सहायता और मार्गदर्शन प्रदान कर सकते हैं।

प्रश्न 7. अक्सर छात्र काउंसलिंग लेने से कतराते क्यों हैं? इसे सामान्य कैसे बनाया जा सकता है?

उत्तर: काउंसलिंग या मानसिक स्वास्थ्य सहायता लेने में हिचकने का सबसे बड़ा कारण सामाजिक कलंक या स्टिग्मा है। कई छात्र डरते हैं कि उन्हें कमजोर या अक्षम बताया जाएगा, उनका न्याय नहीं होगा या उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ेगा। इस कलंक को दूर करने और मानसिक स्वास्थ्य पर खुली बातचीत को सामान्य बनाने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, छात्रों के लिए मानसिक स्वास्थ्य समर्थन की पहुँच बढ़ानी चाहिए और भेदभावपूर्ण प्रथाओं को कम करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जानकारी देना, उन्हें जरूरी कौशल सिखाना और जागरूकता अभियान में सभी छात्रों को शामिल करना जरूरी है। मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता बढ़ाने से छात्र अपने और दूसरों के भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। साथ ही, नीति और संरचनात्मक बदलावों के माध्यम से छात्रों को सशक्त बनाना और संस्थानों में स्थायी समर्थन सुनिश्चित करना भी आवश्यक है। इस तरह, मानसिक स्वास्थ्य पर बातचीत को अकादमिक माहौल में प्राकृतिक और स्वीकार्य बनाया जा सकता है।

प्रश्न 8. अगर कोई छात्र तनाव, चिंता या डिप्रेशन महसूस कर रहा हो, तो उसे तुरंत क्या कदम उठाने चाहिए?

उत्तर: यदि छात्र अत्यधिक तनाव, चिंता या अवसाद महसूस कर रहे हैं, तो उन्हें तुरंत प्रभावी तनाव प्रबंधन तकनीकें अपनानी चाहिए, स्वयं की देखभाल के नियम बनाना चाहिए और अपनी भावनाओं को स्वस्थ तरीके से व्यक्त करना सीखना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले छात्रों को यह पहचानना चाहिए कि उनके तनाव के मुख्य कारण क्या हैं और किन परिस्थितियों में वे अधिक प्रभावित होते हैं। फिर उन्हें उन परिस्थितियों से निपटने या बचने के लिए स्वस्थ coping mechanisms की सूची तैयार करनी चाहिए। इसमें व्यायाम करना, किसी हॉबी में समय बिताना, ध्यान या गहरी साँस लेने जैसी विश्राम तकनीकों का अभ्यास शामिल हो सकता है। इसके अलावा, वे किसी भरोसेमंद व्यक्ति या मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से अपनी भावनाओं और परेशानियों के बारे में बात कर सकते हैं। भावनाओं को लिखने के लिए डायरी का प्रयोग करना, दैनिक दिनचर्या का पालन करना और नकारात्मक विचारों को चुनौती देना भी मददगार होता है। इन सरल लेकिन प्रभावी कदमों से छात्र अपने मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर ढंग से नियंत्रित कर सकते हैं और भावनात्मक स्थिरता बनाए रख सकते हैं।

प्रश्न 9. क्या भारत में छात्रों की मानसिक सेहत के लिए मजबूत नीतियों की जरूरत है?

उत्तर: हां, भारत में छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा और समर्थन के लिए मजबूत और समन्वित नीतियों की बहुत आवश्यकता है। वर्तमान में कुछ पहलें मौजूद हैं जैसे कि मेन्टल हेल्थकेयर एक्ट 2017, नेशनल सुसाइड प्रिवेंशन स्ट्रैटेजी, टेली-मानस (Tele-MANAS), नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 और सुप्रीम कोर्ट गाइडलाइंस 2025, लेकिन ये अक्सर अलग-अलग और अधूरा प्रयास लगते हैं। नीतियों के क्रियान्वयन में कई कमियाँ हैं, जैसे कि अव्यवस्थित दृष्टिकोण, कमजोर कार्यान्वयन, मानसिक स्वास्थ्य पर समाज में फैला कलंक, प्रशिक्षित पेशेवरों की कमी और पर्याप्त बजट का अभाव। इन चुनौतियों को देखते हुए जरूरी है कि सभी शैक्षणिक संस्थानों में अनिवार्य काउंसलर्स हों, शिक्षकों और स्टाफ के लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रशिक्षण नियमित रूप से आयोजित किया जाए, पाठ्यक्रम में मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को एकीकृत किया जाए और डिजिटल माध्यम जैसे Tele-MANAS के जरिये पहुँच बढ़ाई जाए। इसके अलावा, स्कूल और कॉलेजों की निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करना भी अनिवार्य है ताकि छात्र सुरक्षित और सहायक वातावरण में अपने मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण कर सकें।

मार्च 2020 में जब देशभर के कॉलेज और विश्वविद्यालय अचानक बंद हुए, तब छात्रों और शिक्षकों को यह समझ आया कि यदि शिक्षा केवल लेक्चर, व्हाट्सऐप पर नोट्स और तय टाइम-टेबल तक सीमित हो जाए, तो जैसे ही यह ढांचा टूटता है, सीखने की पूरी प्रक्रिया भी कमजोर पड़ जाती है। ऑनलाइन क्लासेस और परीक्षाएँ तो हो गईं, डिग्रियाँ भी मिलीं, लेकिन बहुत से छात्रों का अनुभव था कि उन दो वर्षों में उन्होंने उतना भी नहीं सीखा जितना एक अच्छे, प्रायोगिक सेमेस्टर में सीख लेते।

इसी अनुभव ने शिक्षाविदों और नीति-निर्माताओं के बीच एक नई सोच को जन्म दिया—ऑर्गेनिक लर्निंग। यह सोच छात्रों को वास्तविक प्रोजेक्ट, स्टूडियो वर्क, लर्निंग बाय डूइंग और प्रोजेक्ट-बेस्ड लर्निंग से जोड़ती है। इसका मुख्य सिद्धांत है कि पाठ्यक्रम को छात्र के अनुसार ढाला जाए, न कि छात्रों को कठोर पाठ्यक्रम में फिट किया जाए।

ऑर्गेनिक लर्निंग: सीखने का मानवीय और सक्रिय मॉडल

पारंपरिक शिक्षा में शिक्षक बोलता है, छात्र सुनते हैं, नोट्स बनाते हैं और रटकर परीक्षा पास करते हैं। वहीं ऑर्गेनिक लर्निंग में छात्र की सक्रिय भूमिका होती है। सीखने का आधार अनुभव, समस्या समाधान, खोज और निर्माण होता है। इसमें डिजिटल नेटवर्क, समुदाय और संसाधन भी सीखने का हिस्सा बनते हैं। यह मॉडल मानसिक स्वास्थ्य, प्रेरणा और व्यक्तिगत उद्देश्य को भी समान महत्व देता है।

कंस्ट्रक्टिविज़्म, एक्सपीरिएंशल लर्निंग, कनेक्टिविज़्म और ह्यूमनिज़्म जैसे सिद्धांत मिलकर इस शिक्षा दृष्टि को मजबूत बनाते हैं। यहाँ प्रोजेक्ट, शोध प्रश्न या समुदाय आधारित काम ही असली ‘कोर्स’ बन जाते हैं।

उच्च शिक्षा को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत क्यों?

महामारी के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि केवल ऑनलाइन लेक्चर से सीखना संभव नहीं। साथ ही, इंडस्ट्री भी अब केवल डिग्री नहीं, बल्कि ऐसे कौशल चाहती है जो वास्तविक परिस्थिति में काम आएँ—टीमवर्क, डेटा और AI का उपयोग, वास्तविक समस्याओं को हल करने की क्षमता और जटिल परिस्थितियों में निर्णय लेना। ये कौशल ऑर्गेनिक लर्निंग के माध्यम से ही विकसित होते हैं।

भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह अवसर भी है कि हम शिक्षा की अपनी परिभाषा तय करें—जो रोज़गार, नवाचार और सामाजिक प्रभाव पर आधारित हो।

STEM और Non-STEM दोनों में इसकी उपयोगिता

ऑर्गेनिक लर्निंग के कई सफल मॉडल दुनिया में अपनाए जा रहे हैं।

इंजीनियरिंग में डेनमार्क की Aalborg University जैसे उदाहरण हैं, जहाँ हर सेमेस्टर वास्तविक प्रोजेक्ट पर सीख होती है। भारत में भी कई संस्थान ग्रामीण नवाचार और तकनीकी समाधानों को कोर्स से जोड़ रहे हैं।

Olin College (USA) जैसे संस्थानों में अंतिम वर्ष में छात्र इंडस्ट्री के साथ असली प्रोजेक्ट करते हैं—यह मॉडल भारत में भी तेजी से अपनाया जा रहा है।

सामुदायिक जुड़ाव आधारित मॉडल मलयेशिया और भारत की कई पहलों जैसे NSS में पहले से मौजूद हैं। Non-STEM क्षेत्रों में पत्रकारिता, कानून, इतिहास आदि में भी यह शिक्षा शैली बेहद प्रभावी साबित हो रही है।

फायदे—गहरी सीख, बेहतर करियर और स्वस्थ कैंपस संस्कृति

जब छात्र खुद बनाते, खोजते और प्रस्तुत करते हैं, तो ज्ञान गहरा और टिकाऊ होता है। इंडस्ट्री से जुड़ाव बढ़ता है और रोजगार की संभावनाएँ मजबूत होती हैं। मेंटरशिप और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देकर कैंपस अधिक संवेदनशील और सहयोगी बनते हैं।

चुनौतियाँ भी कम नहीं

कभी-कभी दिशा की अस्पष्टता छात्रों में भ्रम पैदा कर सकती है। पुरानी परीक्षा प्रणाली इस मॉडल से मेल नहीं खाती और शिक्षकों पर काम का दबाव बढ़ जाता है। डिजिटल असमानता भी एक बड़ी चुनौती है।

कैसे करें इसे लागू?

जरूरत है कि सेमेस्टर का केंद्र प्रोजेक्ट हो और बाकी विषय उसकी सहायता करें। स्टूडियो और मेकर स्पेस जैसे लचीले स्थान, पीयर लर्निंग, मेंटरिंग और तकनीक को सहयोगी भूमिका में शामिल किया जाए। मूल्यांकन में भी बदलाव जरूरी है—तीन घंटे की परीक्षा से आगे बढ़कर पोर्टफोलियो, सार्वजनिक प्रस्तुति और समुदाय आधारित फीडबैक को महत्व दिया जाए।

यह विकल्प नहीं, भविष्य की रणनीति है

NEP 2020 इस दिशा को मजबूत करती है। आज विश्वविद्यालयों के सामने विकल्प है—या तो पुराने ढांचे में थोड़े सुधार के साथ चलते रहें, या छात्र-केंद्रित, संवेदनशील और अनुकूलनशील शिक्षा मॉडल बनाएं।

ऑर्गेनिक लर्निंग शिक्षा का भविष्य तय करेगी। यह अब सिद्धांत नहीं, ज़रूरत है। असली सवाल यह है कि हम अपने संस्थान में ऐसा कौन-सा ठोस कदम उठाएँ, जो “चैप्टर पढ़ाने” से “सीखने को विकसित करने” की ओर ले जाए?

जो संस्थान इस सवाल का उत्तर खोजेंगे और उस पर अमल भी करेंगे—वही आने वाले समय की उच्च शिक्षा को दिशा देंगे।

डायरेक्टर, टेक्नो इंडिया ग्रुप और 

प्रिंसिपल एडवाइज़र, टेक्नो इंडिया यूनिवर्सिटी।

चीफ़ मेंटर, Edinbox.com

वाइस प्रेसिडेंट, ग्लोबल मीडिया एजुकेशन काउंसिल।  

ब्राज़ील के बेलेम में हुए COP30 में यह स्पष्ट संदेश मिला कि जलवायु कार्रवाई अब केवल लक्ष्यों की नहीं, बल्कि धरातल पर समाधान की लड़ाई है। भारत के लिए सर्कुलर इकोनॉमी, सेकेंडरी मैन्युफैक्चरिंग और ग्रीन इंडस्ट्री आने वाले समय में आर्थिक विकास और रोजगार का बड़ा स्तंभ बन सकते हैं।

ब्राज़ील के बेलेम में हाल में हुए COP30 सम्मेलन ने एक बात बिल्कुल साफ कर दी है — दुनिया अब केवल लक्ष्यों की बात करके तालियाँ नहीं बजा सकती। जलवायु परिवर्तन पर लड़ाई तभी जीती जाएगी जब समाधान धरातल पर दिखें। इस बार का एजेंडा सिर्फ़ “कितना कटौती करेंगे” नहीं था, बल्कि “यह कटौती कैसे और कहाँ से होगी” पर केंद्रित था। वैश्विक हरित औद्योगिकीकरण पर आया बेलेम घोषणापत्र इस बदलाव का प्रतीक है, क्योंकि इसमें व्यापार, औद्योगिक प्रतिस्पर्धा और संसाधनों के उपयोग को सीधे जलवायु कूटनीति से जोड़ा गया है।

भारत के लिहाज़ से यह बदलाव और भी महत्त्वपूर्ण है। देश तेज़ी से एक बड़े विनिर्माण केंद्र के रूप में उभर रहा है और नेट-ज़ीरो के लक्ष्य की ओर काम कर रहा है। इसलिए भारत के ग्रीन फ्यूचर का पैमाना सिर्फ़ यह नहीं होगा कि कितने सोलर पैनल लगे, बल्कि यह होगा कि स्टील, सीमेंट, एल्युमिनियम और प्लास्टिक जैसी सामग्रियों का कितना कुशलता से उपयोग हुआ। स्पष्ट है — ग्रीन ग्रोथ का मतलब केवल स्वच्छ ऊर्जा नहीं, बल्कि स्मार्ट इंडस्ट्री भी है।

भारत के शहर हर साल लगभग 62 मिलियन टन ठोस कचरा पैदा करते हैं, लेकिन उसका छोटा-सा हिस्सा ही सही तरीक़े से रिसाइकिल होता है। अगर स्थिति यही रही, तो 2050 तक यह कचरा 400 मिलियन टन से भी आगे जा सकता है। यह संकट एक अवसर भी बन सकता है — सर्कुलर इकोनॉमी को बढ़ावा देकर। कबाड़ से बनती सामग्रियाँ नए कच्चे माल की जगह ले सकती हैं और यह न सिर्फ़ कचरा कम करेगी बल्कि अर्थव्यवस्था को भी नई ताक़त देगी। अनुमान कहता है कि इस परिवर्तन से 2050 तक 2 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा आर्थिक मूल्य और एक करोड़ से ज़्यादा रोज़गार पैदा हो सकते हैं।

सेकेंडरी मैन्युफैक्चरिंग यानी कबाड़ या बेकार हो चुकी सामग्रियों से उत्पाद बनाना एक व्यावहारिक और ज़रूरी विकल्प है। यह कचरे को कच्चे माल में बदलने का सबसे स्वच्छ तरीका है। इससे ऊर्जा की खपत कम होती है, आयात पर निर्भरता घटती है और स्थानीय रोजगार बढ़ता है। यह सीधे SDG 12 और साथ ही SDG 8, 9, 11 और 13 की ओर भारत को आगे बढ़ाता है।

एल्युमिनियम उद्योग इसका बेहतरीन उदाहरण है। नए बॉक्साइट से एक टन एल्युमिनियम बनाने में जितनी ऊर्जा लगती है, उतनी ऊर्जा रिसाइकिल किए गए एल्युमिनियम में केवल 5% लगती है। भारत में आज कुल उत्पादन का 40% हिस्सा सेकेंडरी एल्युमिनियम है और इससे CO₂ उत्सर्जन में 90% से अधिक कमी आती है। लेकिन भारत का एल्युमिनियम अभी भी कोयले पर आधारित बिजली पर निर्भर है। यूरोपीय संघ जैसे बाज़ार अब कार्बन टैक्स लगा रहे हैं, इसलिए अगर भारत ने अपनी इंडस्ट्री को स्वच्छ नहीं किया, तो वह अपने ही उत्पादों के लिए बाज़ार खो देगा।

COP30 ने इस चुनौती को रोज़गार के अवसर से जोड़कर समझाया है। दुनिया में रीसाइक्लिंग उद्योग पहले से ही लाखों लोगों को रोजगार देता है — भारत में यह संख्या 2050 तक 1 करोड़ से अधिक हो सकती है। यह वही सेक्टर है जहाँ MSME सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं, और यही MSME देश की GDP और निर्यात के बड़े हिस्से को संभाले हुए हैं। मतलब साफ़ है — सर्कुलर इकोनॉमी भारत के लिए रोजगार और जलवायु — दोनों का इंजन बन सकती है।

लेकिन यहाँ एक चेतावनी भी है। अगर यह पूरी तरह ऑटोमेशन-आधारित मॉडल बना, तो लाभ तो होगा लेकिन रोजगार नहीं। भारत के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि कचरा बीनने वाले, छोटे स्क्रैप डीलर और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को इस नई औद्योगिक क्रांति में शामिल किया जाए — नहीं तो हरित विकास केवल कुछ कारखानों तक सीमित होकर रह जाएगा।

COP30 का सार यही है — अब लक्ष्य नहीं, कार्यान्वयन मायने रखता है। भारत के पास मौका है कि वह कम-कार्बन सामग्री को बढ़ावा देते हुए इंडस्ट्री और MSMEs को ग्रीन ट्रांज़िशन की राह में आगे बढ़ाए। सरकारी खरीद में रिसाइकल्ड मटीरियल को प्राथमिकता, स्क्रैप की उपलब्धता बढ़ाने के ढांचे, तकनीक उन्नयन और श्रमिकों का औपचारिककरण — यही वो कदम हैं जो भारत को आगे ले जाएंगे।

अंततः, यह केवल पर्यावरणीय रणनीति नहीं — यह आर्थिक रणनीति है। सेकेंडरी मैन्युफैक्चरिंग हर एक टन पर कार्बन उत्सर्जन कम करती है और मनुष्यों के लिए ज़्यादा काम पैदा करती है। इसे ही COP30 ने Job–Carbon Dividend का नाम दिया है — कम कार्बन, ज़्यादा रोजगार।

भारत अगर इस मौके को सीरियसली ले, तो वह दुनिया के सामने यह साबित कर सकता है कि हरित विकास सिर्फ़ खर्चा नहीं, बल्कि भविष्य की सबसे बड़ी कमाई है — अर्थव्यवस्था भी बचेगी और धरती भी।

 

10 नवंबर को दिल्ली में हुए ब्लास्ट के बाद जब जांच की दिशा फरीदाबाद की अल-फलाह यूनिवर्सिटी की ओर मुड़ी, तो मामला सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों तक सीमित नहीं रहा। विश्वविद्यालय पर लगे कथित शैक्षणिक धोखाधड़ी और एक्सपायर हो चुके NAAC एक्रेडिटेशन के दावे ने भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था की एक गहरी सच्चाई उजागर कर दी—मान्यता (accreditation) का संकट।

अल-फलाह स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी का ‘ग्रेड A’ एक्रेडिटेशन 2013 से 2018 तक वैध था। इसी तरह, अल-फलाह स्कूल ऑफ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग की मान्यता 2011 से 2016 के बीच वैध थी। यानी दोनों संस्थान पिछले लगभग एक दशक से बिना वैध एक्रेडिटेशन के चल रहे थे, जबकि उनकी वेबसाइट और सार्वजनिक दस्तावेजों में इन्हें "ग्रेड A" बताया जाता रहा। NAAC के शो-कॉज नोटिस में यह बात साफ लिखी है कि ऐसे दावे “जनता और छात्रों को गुमराह करते हैं।”

UGC के अनुसार, भारत में कुल 1,074 विश्वविद्यालय हैं। लेकिन 2025 तक उपलब्ध NAAC डेटा बताता है कि इनमें से केवल 561 विश्वविद्यालयों के पास ही वैध एक्रेडिटेशन है। यानी आधे से अधिक विश्वविद्यालय आज भी बिना किसी मानक मूल्यांकन के काम कर रहे हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं—यह हमारे उच्च शिक्षा मॉडल की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल है।

जब NAAC की एग्जीक्यूटिव कमेटी के चेयरमैन अनिल सहस्रबुद्धे से पूछा गया कि इतना बड़ा हिस्सा मान्यता से बाहर क्यों है, उनका जवाब स्पष्ट था कि NAAC की प्रक्रिया अनिवार्य नहीं, बल्कि स्वैच्छिक है। कोई संस्था आवेदन नहीं करती, तो NAAC उस पर कार्रवाई नहीं कर सकता। नियम कड़े करना केंद्र, राज्य सरकारों और UGC-AICTE जैसी नियामक संस्थाओं की जिम्मेदारी है। फिलहाल एक्रेडिटेड संस्थानों को अतिरिक्त अधिकार और इंसेंटिव देकर प्रोत्साहन दिया जा रहा है।  

 

इस जवाब में वही कमजोरी छिपी है जो पूरे सिस्टम को वर्षों से जकड़े हुए है—स्वैच्छिक मान्यता उस समय विफल हो जाती है जब संस्थान अपनी छवि सुधारने से ज्यादा छुपाने में रुचि रखते हों।

NAAC के शो-कॉज नोटिस में यह तक लिखा गया कि विश्वविद्यालय NAAC द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है, न ही उसने दोबारा मान्यता के लिए आवेदन किया है। इसके बावजूद वेबसाइट पर "ग्रेड A" का दावा मौजूद था। यह सिर्फ तकनीकी भूल नहीं, बल्कि पारदर्शिता का गंभीर उल्लंघन है, जो छात्रों, अभिभावकों और समाज के भरोसे को चोट पहुँचाता है।

विश्वविद्यालय का जवाब आया कि यह “गलती” वेबसाइट-डिजाइन की वजह से हुई और पुराने दावे अब हटा दिए गए हैं। लेकिन यह सफाई अपने-आप में कई सवाल खड़ी करती है— क्या कोई शैक्षणिक संस्थान एक दशक पुराने एक्रेडिटेशन को इतनी अनदेखी से दिखाता रह सकता है? क्या यह सिर्फ तकनीकी चूक थी, या प्रतिष्ठा बनाए रखने का दबाव?

अल-फलाह यूनिवर्सिटी का विवाद केवल एक संस्था की गलती का मामला नहीं है। यह भारत की उच्च शिक्षा प्रणाली के एक बड़े, लगातार उभरते संकट का आईना है। आधे विश्वविद्यालय बिना मान्यता के, स्वैच्छिक मूल्यांकन, ढीला रेगुलेशन और छात्रों के भविष्य को जोखिम में डालती अनिश्चितता- इन सबके बीच सबसे ज्यादा नुकसान उस छात्र को होता है जो मान्यता के भरोसे अपने करियर का फैसला लेता है।

भारत को अब स्वैच्छिक मॉडल से आगे बढ़कर अनिवार्य और पारदर्शी मान्यता प्रणाली की ओर जाना होगा। वरना, हर अल-फलाह जैसा मामला सिर्फ एक और सुर्खी बनेगा—और उसके नीचे दब जाएंगे वे हजारों छात्र, जिनके भविष्य पर ऐसे निर्णय सीधा असर डालते हैं। भारत की उच्च शिक्षा को सुधारने की जरूरत किसी रिपोर्ट का विषय नहीं—यह समय की मांग है।

 

 

भारतीय उच्च शिक्षा एक बड़े परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। लंबे समय तक “अंतरराष्ट्रीय सहयोग” का मतलब सिर्फ एक औपचारिक एमओयू, किसी विदेशी डेलिगेशन के साथ फोटो, या कुछ छात्रों का विदेश जाना भर था। यह दौर अब धीरे-धीरे समाप्त हो गया है। दुनिया बदल चुकी है—और अब अंतरराष्ट्रीयकरण किसी सजावटी कदम का हिस्सा नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों के अस्तित्व और विकास के लिए अनिवार्य रणनीति बन चुका है। आज यह किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम, फैकल्टी और ढांचे जितना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है।

भारत के लिए अंतरराष्ट्रीयकरण का असली मतलब

भारत में अक्सर अंतरराष्ट्रीयकरण को पश्चिमीकरण या सिर्फ ग्लोबल रैंकिंग से जोड़कर देखा जाता है। जबकि इसका असली अर्थ इससे कहीं व्यापक और उद्देश्यपूर्ण है—इसका मूल उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों को वैश्विक दुनिया से जोड़ना है—लोगों, कार्यक्रमों, शोध, विचारों और दैनिक कैंपस जीवन के माध्यम से। यह चार मुख्य रास्तों से होता है:

1. अंतरराष्ट्रीयकरण अब्रॉड (Internationalization Abroad)

इसमें छात्र और फैकल्टी मोबिलिटी, सेमेस्टर अब्रॉड प्रोग्राम, टू-विनिंग/डुअल डिग्री और भारतीय संस्थानों के विदेश कैंपस शामिल हैं, जैसे IIT मद्रास का ज़ांज़ीबार कैंपस और IIT दिल्ली का अबू धाबी कैंपस।

2. अंतरराष्ट्रीयकरण एट होम (Internationalization at Home)

भारत में 99% छात्र विदेश नहीं जाते। ऐसे में वैश्विक कंटेंट का कक्षा में आना, COIL (Collaborative Online International Learning) के जरिए नई असाइनमेंट संस्कृति, और मल्टीकल्चरल कैंपस वातावरण बेहद जरूरी हो जाता है।

3. शोध और ज्ञान सहयोग

IIT बॉम्बे–मोनाश रिसर्च एकेडमी जैसे संयुक्त केंद्र, मल्टी-कंट्री रिसर्च, को-ऑथर्ड पेपर्स और दक्षिण-दक्षिण सहयोग—स्वास्थ्य, जलवायु, खाद्य सुरक्षा और किफायती नवाचार जैसे साझा मुद्दों पर केंद्रित।

4. नीति और संस्थागत ढांचा

NEP 2020 ने इसे मजबूत आधार दिया है—Academic Bank of Credits, मल्टीपल एग्ज़िट, टू-विनिंग/जॉइंट डिग्री, Study in India प्रोग्राम और GIFT City में रेगुलेटरी सैंडबॉक्स जैसे कदम भारत को भविष्य के वैश्विक शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित कर रहे हैं।

क्यों अब ग्लोबल एक्सपोज़र अनिवार्य है?

तीन बड़े बदलावों ने अंतरराष्ट्रीयकरण को विकल्प नहीं, बल्कि आवश्यकता बना दिया है।

1. नए दौर की छात्र महत्वाकांक्षाएँ

आज छोटे शहरों से आने वाले छात्र भी ग्लोबल स्किल्स, अंतरराष्ट्रीय अनुभव, मेंटर्स और नेटवर्क चाहते हैं—चाहे वे विदेश जाएँ या नहीं। अगर विश्वविद्यालय यह नहीं दे पाए, तो छात्र विकल्प ढूँढ़ लेते हैं।

2. 21वीं सदी की वैश्विक चुनौतियाँ

क्लाइमेट चेंज, एआई, महामारी, सप्लाई चेन संकट—ये सब अंतरराष्ट्रीय मुद्दे हैं। छात्रों को वैश्विक सिस्टम समझे बिना, और भारतीय ज्ञान को वैश्विक संदर्भों से जोड़े बिना, शिक्षा अधूरी है।

3. NEP 2020 की नीतिगत क्रांति

क्रेडिट पोर्टेबिलिटी, जॉइंट डिग्री, कम लागत पर ग्लोबल मोबिलिटी और GIFT City जैसी नई संभावनाएँ—ये सभी मिलकर भारतीय उच्च शिक्षा का नया परिदृश्य बना रही हैं।

संस्थागत यात्रा: एक क्षेत्रीय कॉलेज से ग्लोबल यूनिवर्सिटी तक

अंतरराष्ट्रीयकरण किसी एक विभाग का काम नहीं, बल्कि एक सतत यात्रा है।

प्रारंभिक या उभरते विश्वविद्यालयों के लिए 200 एमओयू या विदेशी कैंपस खोलना अवास्तविक है। उन्हें चाहिए कि 3–5 प्राथमिक विदेशी क्षेत्र चुनें, कुछ “एंकर पार्टनर” निर्धारित करें, चुनिंदा विभागों में COIL और संयुक्त प्रोजेक्ट शुरू करें और डिजिटल/फिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाएं। 

राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों में COIL और वर्चुअल एक्सचेंज को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाता है, इंटरनेशनल सेंटर “सिंगल विंडो” बनकर एडमिशन, वीज़ा, वेलफेयर संभालता है और स्कॉलरशिप, ग्रीन कैंपस और इनक्लूसिव पेडागॉजी पर निवेश किया जाता है। 

वैश्विक स्तर के विश्वविद्यालय संयुक्त पीएचडी, विदेशी कैंपस, ट्विनिंग और रिसर्च अकादमियाँ चलाते हैं, अंतरराष्ट्रीय एलुमनाइ व इंडस्ट्री नेटवर्क का उपयोग करते हैं और वैश्विक विमर्श में नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हैं। 

10 Square मॉडल और सक्षम करने वाली स्थितियाँ

अंतरराष्ट्रीयकरण केवल एक ऑफिस का काम नहीं—टेक्नोलॉजी, नेतृत्व, ग्रीन इंफ्रा, स्कॉलरशिप, इंटरडिसिप्लिनैरिटी, मल्टी-असेसमेंट और स्टूडेंट कल्चर—सभी मिलकर इसे प्रभावी बनाते हैं।

सिम्बायोसिस, मणिपाल, जिंदल यूनिवर्सिटी, IIT मद्रास और IIT दिल्ली जैसे भारतीय उदाहरण दिखाते हैं कि सुनियोजित प्रयास विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित बनाते हैं।

उदाहरण:

सिम्बायोसिस—“वसुधैव कुटुम्बकम” को कैंपस संस्कृति का हिस्सा बनाकर अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए प्राकृतिक वातावरण तैयार करता है।

मणिपाल—लीडरशिप, रिसर्च नेटवर्क और सशक्त अंतरराष्ट्रीय मामलों के कार्यालय पर जोर देता है।

ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी—सैकड़ों एमओयू को वास्तविक मोबिलिटी और पाठ्यक्रम साझेदारी में बदलता है।

IIT मद्रास और IIT दिल्ली—विदेश कैंपस के माध्यम से भारत की अकादमिक उपस्थिति बढ़ा रहे हैं।

डिजिटल COIL कोर्स—अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली और यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन बाथेल का उदाहरण वैश्विक सीख को सुलभ बनाता है।

अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए व्यावहारिक रोडमैप

- ग्लोबल रिलेशंस और स्कॉलरशिप सेंटर स्थापित करने या मौजूदा यूनिट्स को एकीकृत कर मजबूत करना।

- एक सीमित लेकिन गहरे सहयोग वाले क्षेत्रों की "विदेश नीति" तय करें—प्राथमिक क्षेत्र और एंकर पार्टनर तय करना।

- हर एमओयू को एक्शन-आधारित बनाएं, एमओयू को प्रतीकात्मक न रखें—हर एमओयू में COIL, फैकल्टी विज़िट, और फंडेड प्रोजेक्ट अनिवार्य हों।

- पाठ्यक्रम में 10–20% वैश्विक/ग्लोबल कंटेंट शामिल करें

- COIL या वैश्विक वर्चुअल प्रोजेक्ट—हर छात्र के लिए कम से कम एक अनिवार्य।

- “फिजिटल” क्लासरूम और विश्वसनीय आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश।

- ग्रीन और समावेशी कैंपस: सस्टेनेबिलिटी प्रोजेक्ट को “लिविंग लैब” बनाकर अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों से जोड़ना।

- अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए मजबूत सपोर्ट सिस्टम

- फैकल्टी के लिए एक्सचेंज, ग्रांट और ट्रेनिंग 

- छात्र-नेतृत्व वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रोत्साहन

अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए सपोर्ट सिस्टम

अंतरराष्ट्रीय छात्रों के लिए सिंगल-विंडो सेंटर, प्री-अराइवल ओरिएंटेशन, बडी प्रोग्राम, सुरक्षित हॉस्टल, और सांस्कृतिक संवेदनशीलता वर्कशॉप—इनके बिना भर्ती सिर्फ संख्या बढ़ाने का खेल बनकर रह जाती है और विश्वविद्यालय की साख गिरती है।

फैकल्टी की केंद्रीय भूमिका

सीड ग्रांट, शोध फंडिंग, कॉन्फ्रेंस सपोर्ट, और समावेशी पेडागॉजी पर प्रशिक्षण—इन सबके बिना अंतरराष्ट्रीय साझेदारियाँ टिकती नहीं। फैकल्टी जितना जुड़ती है, अंतरराष्ट्रीयकरण उतना गहरा होता है।

असली फायदे, और असली जोखिम

अंतरराष्ट्रीयकरण से छात्रों को वैश्विक अनुभव, फैकल्टी को शोध अवसर, और संस्थान को बेहतर प्रतिष्ठा मिलती है। यह स्वाभाविक रूप से NAAC, NIRF, QS और THE जैसी रैंकिंग में सुधार लाता है।

लेकिन खतरा भी है—रैंकिंग की अंधी दौड़। सिर्फ संख्याएँ बढ़ाने से नहीं, बल्कि अनुभव और परिणाम बेहतर करने से ही असली अंतरराष्ट्रीयकरण होता है।

अंततः: भारत के लिए नया शिक्षण क्षितिज

अंतरराष्ट्रीयकरण का सबसे बड़ा वादा लीग टेबल में ऊँचे नंबर लाना नहीं है। इसका असली अर्थ है- ऐसे विश्वविद्यालय बनाना जो वैश्विक रूप से जुड़े हों, स्थानीय जड़ों से मजबूत हों और सामाजिक उद्देश्य से प्रेरित हों। ऐसे कैंपस जहाँ भारतीय और अंतरराष्ट्रीय छात्र बराबरी से मिलकर  ज्ञान बनाएँ और दुनिया की चुनौतियों का समाधान तैयार करें।

भारतीय विश्वविद्यालयों के पास एक अनूठा अवसर है- अगर भारतीय विश्वविद्यालय दूरदर्शी नेतृत्व, मजबूत साझेदारी, मानवीय कैंपस और स्मार्ट टेक्नोलॉजी को साथ लाएँ, तो वे वैश्विक ज्ञान के उपभोक्ता नहीं, बल्कि निर्माता और दिशानिर्देशक बन सकते हैं।

 

डायरेक्टर, टेक्नो इंडिया ग्रुप और 

प्रिंसिपल एडवाइज़र, टेक्नो इंडिया यूनिवर्सिटी.

चीफ़ मेंटर, Edinbox.com.

वाइस प्रेसिडेंट, ग्लोबल मीडिया एजुकेशन काउंसिल. 

भारत की उच्च शिक्षा लंबे समय तक एक ही मॉडल पर चलती रही है—सेमेस्टर के अंत में तीन घंटे की लिखित परीक्षा। यही एक पेपर तय करता था कि छात्र कितना “सीखा” है। चाहे इंजीनियरिंग हो, कॉमर्स, लॉ या मैनेजमेंट—अधिकतर कॉलेजों में यही परंपरा चली आ रही थी।

कोविड-19 के दौरान जब कैंपस बंद हुए और परीक्षाएँ कराना मुश्किल हुआ, तब इस मॉडल की सीमाएँ साफ दिखाई देने लगीं। कई संस्थानों ने पाया कि उनके पास सीखने को मापने के विकल्प बहुत कम हैं। तब क्विज़, प्रोजेक्ट, ऑनलाइन प्रेज़ेंटेशन, ओपन-बुक टेस्ट जैसे कई प्रयोग शुरू हुए। शुरू में भले चुनौतियाँ आईं, लेकिन धीरे-धीरे यह समझ मजबूत हुई कि 21वीं सदी की ज़रूरतें सिर्फ़ एक परीक्षा से पूरी नहीं हो सकतीं—इसके लिए बहु-आकलन (Multi-Assessment) की संस्कृति ज़रूरी है।

बहु-आकलन का सरल अर्थ है—सीखने को अलग-अलग समय पर, अलग उद्देश्यों के साथ और अलग तरीकों से मापना। इसमें छात्र की शुरुआती तैयारी, सीखने की यात्रा और अंतिम प्रदर्शन—तीनों का संतुलित मूल्यांकन शामिल होता है।

“Assessment of Learning” से आगे बढ़कर “Assessment as Learning” तक

भारत में अभी भी अधिकांश सिस्टम का केंद्र है—assessment of learning, यानी कोर्स के अंत में दिए गए अंक। इससे बेहतर मॉडल है assessment for learning, जिसमें छोटे-छोटे टेस्ट और असाइनमेंट से छात्र को लगातार दिशा मिलती है।

लेकिन वैश्विक स्तर पर सबसे आधुनिक मॉडल है—assessment as learning, जहां आकलन भी सीखने का ही हिस्सा बन जाता है। इसमें:

- छात्र मूल्यांकन के मानदंड समझते हैं

- वे स्वयं अपना और साथियों का काम जाँचते हैं

- फीडबैक देखकर अपनी कमियों पर खुद काम करते हैं

इससे मेटाकॉग्निशन यानी सोचने की क्षमता बढ़ती है। छात्र सिर्फ़ यह नहीं पूछते कि “कितने नंबर मिले?”, बल्कि यह समझते हैं कि “मैंने क्या सीखा, कहाँ कमी रह गई?कहाँ सुधार की ज़रूरत है?”

भारत जैसे विविध पृष्ठभूमि वाले देश में यह मॉडल विशेष रूप से उपयोगी है, क्योंकि यह हर छात्र को खुद को साबित करने के कई मौके देता है।

डायग्नोस्टिक, फ़ॉर्मेटिव और समेटिव—आकलन की तीन-स्तरीय यात्रा

अच्छा बहु-आकलन किसी भी काम का ढेर नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित ढांचा है:

  1. डायग्नोस्टिक आकलन—शुरुआत का पता लगाने के लिए

उदाहरण:

- इंजीनियरिंग में मेकैनिक्स से पहले बेसिक क्विज़

- MBA छात्रों का क्वांट और लेखन टेस्ट

- B.Ed छात्रों का “अच्छा शिक्षक कौन?” पर छोटा निबंध

इसका उद्देश्य सिर्फ़ समझ बनाना है, अंक देना नहीं।

  1. फ़ॉर्मेटिव आकलन—सीखते हुए मार्गदर्शन

यह पूरे सेमेस्टर चलता है।

उदाहरण:

- मेडिकल में ऑनलाइन केस क्विज़

- लॉ में जजमेंट-बेस्ड केस ब्रीफ

- मीडिया में डॉक्यूमेंट्री के रफ़ कट

- डिज़ाइन में स्टूडियो क्रिट

इससे निरंतर सीखने की आदत बनती है और आख़िरी परीक्षा का दबाव कम होता है।

  1. समेटिव आकलन—अंतिम लेकिन वास्तविक जीवन से जुड़ा मूल्यांकन

केंद्र में होता है असली काम:

- इंजीनियरिंग में कैपस्टोन प्रोजेक्ट

- मैनेजमेंट में MSME कंसल्टिंग

- शिक्षक-प्रशिक्षुओं का टीचिंग पोर्टफोलियो

- लॉ में मूट कोर्ट और लीगल क्लिनिक

- मीडिया/डिज़ाइन में इंडस्ट्री-रिव्यूड पोर्टफोलियो

यहाँ ज्ञान के साथ टीमवर्क, समस्या-समाधान और नैतिकता भी आंकी जाती है।

बहु-आकलन की प्रमुख विधियाँ—फायदे और चुनौतियाँ

  1. प्रदर्शन-आधारित आकलन

(OSCE, मूट कोर्ट, लाइव इवेंट आदि)

फायदा: असली कौशल का परीक्षण

चुनौती: समय और योजना की ज़रूरत 

  1. पोर्टफोलियो / ई-पोर्टफोलियो

फायदा: विकास की पूरी यात्रा दिखती है

चुनौती: निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए स्पष्ट रूब्रिक चाहिए

  1. जांच-आधारित आकलन

(फील्ड स्टडी, रिसर्च, केस स्टडी)

फायदा: जिज्ञासा और स्थानीय मुद्दों से जुड़ाव

चुनौती: कॉपी-पेस्ट का खतरा

  1. सहयोगी और सहपाठी आकलन

फायदा: टीमवर्क और नेतृत्व का विकास

चुनौती: ईमानदार फीडबैक देने में हिचक

  1. प्रतिबिंबात्मक आकलन

फायदा: छात्र अपनी सीख को समझते हैं

चुनौती: कई छात्रों को यह नया और मुश्किल लगता है

भारत में बदलता परिदृश्य—कुछ प्रमुख उदाहरण

मुंबई विश्वविद्यालय: 60:40 पैटर्न—60% फाइनल एग्ज़ाम, 40% इंटरनल

दिल्ली विश्वविद्यालय: UGCF 2022 में 25% इंटरनल असेसमेंट

JNU: लंबे समय से सेमिनार, टर्म पेपर और क्लास भागीदारी आधारित मूल्यांकन

मेडिकल कॉलेज: OSCE/vOSCE का बढ़ता इस्तेमाल

इंजीनियरिंग: Outcome-Based Education के तहत प्रोजेक्ट-बेस्ड लर्निंग

लॉ संस्थान: मूट कोर्ट, लीगल एड क्लिनिक और सिम्युलेटेड केसवर्क

मीडिया/डिज़ाइन स्कूल: पोर्टफोलियो, लाइव कैंपेन और स्टूडियो क्रिट

टेक्नोलॉजी, समानता और AI के दौर में नई ज़रूरतें

रिपोर्ट्स साफ़ कहती हैं कि आकलन तटस्थ नहीं होता।

बहु-आकलन के माध्यम से संस्थान:

- कई तरीकों की अभिव्यक्ति खोलते हैं

- प्रगति पर जोर देते हैं

- पारदर्शी रूब्रिक साझा करते हैं 

- आत्म-आकलन को बढ़ावा देते हैं

लेकिन दो बड़ी चुनौतियाँ हैं:

  1. डिजिटल डिवाइड

सभी छात्रों के पास डिवाइस नहीं, इसलिए लो-बैंडविड्थ और ऑफ़लाइन विकल्प आवश्यक हैं।

  1. जनरेटिव AI

ChatGPT जैसी तकनीकें सामान्य निबंध और याददाश्त वाले टेस्ट आसानी से हल कर देती हैं।

इसलिए अब ज़रूरत है—

- मौखिक प्रदर्शन

- स्थानीय संदर्भ

- वास्तविक अनुभव

- लाइव प्रोजेक्ट

- चिंतन-आधारित आकलन

ऐसे कार्यों की जिन्हें AI से कॉपी नहीं किया जा सकता।

आगे की राह—नीति और ज़मीनी सुधार

भारतीय विश्वविद्यालयों के सामने बड़े बैच, सीमित फैकल्टी और प्रशासनिक दबाव जैसी चुनौतियाँ हैं। ऐसे में चरणबद्ध रणनीति आवश्यक है:

- NEP 2020 के अनुरूप स्पष्ट आकलन नीति

- फैकल्टी विकास कार्यक्रम और पीयर-रीव्यू संस्कृति

- LMS, Samarth, e-portfolio जैसे डिजिटल टूल

- छात्र फीडबैक के आधार पर वर्कलोड संतुलन

- NAAC/NBA में वास्तविक सीख और रोजगार-परिणामों को प्राथमिकता

एक बड़ी परीक्षा से आगे—सीख की रंगीन मोज़ेक तक

बहु-आकलन का मतलब काम बढ़ाना नहीं, बल्कि सोच-समझकर बनाए गए ऐसे मूल्यांकन हैं जो:

- सीखने को निरंतर बनाते हैं

- हर छात्र के लिए न्यायसंगत अवसर खोलते हैं

- असली कौशल को पहचानते हैं

- बेहतर शिक्षक-छात्र संवाद बनाते हैं

NEP 2020, डिजिटल बदलाव और वैश्विक प्रतिस्पर्धा के इस दौर में यह भारतीय उच्च शिक्षा के लिए एक रणनीतिक अवसर है—ऐसे ग्रेजुएट तैयार करने का जो आत्मविश्वासी हों, कुशल हों और वास्तविक दुनिया की चुनौतियों के लिए तैयार हों।

जब हम एक परीक्षा के ढांचे से आगे बढ़ते हैं, तो आकलन सीखने की यात्रा का जीवंत हिस्सा बन जाता है—जैसे एक सुंदर मोज़ेक जिसमें हर टाइल छात्र की बढ़ती क्षमता की कहानी कहती है। यही भारतीय विश्वविद्यालयों का अगला बड़ा कदम होना चाहिए। 

 

भारत आज विश्व की सबसे युवा आबादी वाला देश है। यह वही पीढ़ी है जिस पर राष्ट्र के भविष्य की नींव टिकी है। लेकिन दुख की बात यह है कि यही युवा वर्ग आज सबसे अधिक मानसिक दबाव, असुरक्षा और निराशा से जूझ रहा है। आंकड़े बताते हैं कि देश में हर साल हज़ारों छात्र अपनी जान दे देते हैं। यह केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि एक सामाजिक आपदा है — जिसे समझने और रोकने के लिए हमें तुरंत और गंभीर प्रयास करने होंगे।

बढ़ती आत्महत्या की घटनाएं: एक चिंताजनक परिदृश्य 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, हर साल लगभग 13,000 से अधिक छात्र आत्महत्या करते हैं। इसका अर्थ है कि हर घंटे एक छात्र अपनी जान गंवा रहा है। यह आंकड़ा सिर्फ़ संख्या नहीं, बल्कि हमारे शैक्षिक तंत्र, पारिवारिक वातावरण और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति हमारी उदासीनता का प्रमाण है।

इन आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारणों में परीक्षा का दबाव, असफलता का भय, अभिभावकों की अपेक्षाएं, सामाजिक तुलना, आर्थिक समस्याएं और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता की कमी शामिल हैं।

शिक्षा प्रणाली की कठोरता और प्रतिस्पर्धा का बोझ

भारत की शिक्षा प्रणाली आज भी "अंक आधारित सफलता" पर टिकी हुई है। बच्चों को छोटी उम्र से ही सिखा दिया जाता है कि सफलता का मतलब केवल अच्छे नंबर और नामी संस्थानों में प्रवेश है।

जेईई, नीट, सीए, यूपीएससी जैसी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों के बीच तनाव, चिंता और अवसाद आम हो चुके हैं। कोचिंग संस्थान शहरों में 'शैक्षणिक फैक्ट्री' बन चुके हैं, जहाँ मानवीय संवेदनाओं की जगह केवल रिजल्ट की गिनती रह गई है। 

माता-पिता और समाज की अपेक्षाओं का दबाव

हमारे समाज में ‘तुलना’ एक गहरी बीमारी बन चुकी है। बच्चे की प्रतिभा या रुचि को समझने के बजाय, उसे किसी और के मापदंड पर परखा जाता है। “देखो शर्मा जी का बेटा क्या कर रहा है” जैसे वाक्य बच्चों के आत्मविश्वास को धीरे-धीरे खत्म कर देते हैं।

कई माता-पिता अनजाने में अपने सपनों का बोझ बच्चों पर डाल देते हैं, जिससे बच्चा खुद को असफल और बेकार महसूस करने लगता है।

 

मानसिक स्वास्थ्य: सबसे उपेक्षित क्षेत्र

भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अभी भी कलंक (stigma) बना हुआ है। बच्चों और युवाओं को भावनाओं को व्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता। स्कूलों और कॉलेजों में काउंसलिंग की व्यवस्था न के बराबर है।

बहुत से छात्र अवसाद (depression), चिंता (anxiety), और अकेलेपन से जूझते हैं, लेकिन उन्हें सही मार्गदर्शन या सहानुभूति नहीं मिल पाती।

क्या किया जा सकता है? — रास्ते और समाधान

1. मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा को अनिवार्य बनाना:

हर स्कूल और कॉलेज में काउंसलर और मनोवैज्ञानिक की नियुक्ति होनी चाहिए। बच्चों को यह सिखाया जाए कि असफलता अंत नहीं है, बल्कि सीखने का एक अवसर है।

2. परीक्षा और मूल्यांकन प्रणाली में सुधार:

अंकों के बजाय कौशल, रचनात्मकता और व्यावहारिक ज्ञान को प्राथमिकता दी जाए। "एक्स्ट्रा-करिकुलर" गतिविधियों को भी समान महत्व मिलना चाहिए।

3. अभिभावकों की भूमिका:

माता-पिता को अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। बच्चों के साथ संवाद बनाए रखना, उन्हें सुनना और उनकी भावनाओं को समझना सबसे ज़रूरी कदम है।

4. सरकारी हस्तक्षेप और नीतिगत सुधार:

आत्महत्या रोकथाम के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हेल्पलाइन, काउंसलिंग नेटवर्क और "मेंटल हेल्थ अवेयरनेस" प्रोग्राम चलाने की आवश्यकता है।

5. मीडिया और समाज की जिम्मेदारी:

आत्महत्या से जुड़ी खबरों को सनसनीखेज़ बनाने के बजाय, संवेदनशील और जागरूकता बढ़ाने वाले तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए।

 

अब और मौन नहीं

छात्र आत्महत्याएं केवल व्यक्तिगत असफलताओं का परिणाम नहीं हैं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था की विफलता हैं जो बच्चों को दबाव में तो रखती है पर भावनात्मक सहारा नहीं देती। 

अगर हम अब भी नहीं चेते, तो यह मौन महामारी हमारे समाज के भविष्य को खोखला कर देगी।   

अब वक्त आ गया है कि हम शिक्षा को सिर्फ़ करियर का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन को समझने का ज़रिया बनाएं — जहाँ बच्चा नंबरों से नहीं, बल्कि अपने आत्मविश्वास, संतुलन और मानसिक स्वास्थ्य से मापा जाए।

“हर आत्महत्या एक प्रश्न है — क्या हमने अपने बच्चों को सच में सुना?”

 

 

 

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आज के दौर में, जहां हर चीज टेक्नोलॉजी पर आधारित है, B.Tech करना एक समझदारी भरा फैसला है। खासकर वे छात्र जो AI और कंप्यूटर साइंस में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें इस डिग्री के लिए किसी अच्छे और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का चयन करना चाहिए, ताकि उनका करियर सुरक्षित दिशा में आगे बढ़े।

लेकिन कई छात्र इस बात से अनजान रहते हैं कि डायरेक्ट एडमिशन देने वाले कई कॉलेज उनके करियर के लिए बेहतर विकल्प नहीं होते, क्योंकि टैलेंटेड छात्र या तो शीर्ष कॉलेजों में होते हैं या फिर विदेशों में पढ़ाई कर रहे होते हैं।

ऐसे में, अगर आप अच्छी पढ़ाई, बेहतर माहौल और गुणवत्तापूर्ण साथियों के बीच सीखना चाहते हैं, तो कंप्यूटर साइंस एंट्रेंस टेस्ट के जरिए एडमिशन लेना सबसे बेहतर विकल्प है।

नेशनल-लेवल एंट्रेंस टेस्ट क्यों होते हैं बेहतर?

नेशनल-लेवल एंट्रेंस परीक्षा के माध्यम से दाखिला लेने वाले कॉलेजों में बैच अधिक सक्षम होता है। यह कक्षा के माहौल, बातचीत, पीयर लर्निंग और अकादमिक ग्रोथ को बेहतर बनाता है। ऐसे संस्थानों में उच्च शिक्षा मानक, अनुभवी फैकल्टी, अत्याधुनिक लैब और सुविधाएं मिलती हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता मजबूत होती है।

इसके विपरीत, डायरेक्ट एडमिशन वाले कॉलेजों में छात्रों की क्षमता में बड़ी विविधता होती है, जो सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है। डायरेक्ट एडमिशन आसान ज़रूर लगता है, लेकिन यह हमेशा बेहतर शिक्षण और प्लेसमेंट का आश्वासन नहीं देता।

नेशनल-लेवल एंट्रेंस टेस्ट देने के दीर्घकालिक फायदे

एंट्रेंस परीक्षा सिर्फ एडमिशन का रास्ता नहीं होती, बल्कि यह कई लाभ देती है:

- हर बैकग्राउंड के छात्रों को समान अवसर

- प्रतिष्ठित संस्थानों और स्कॉलरशिप की अधिक संभावनाएं

- समस्या-समाधान, अनुशासन, और समय प्रबंधन जैसी कौशल में मजबूती

ये सभी गुण एक सफल इंजीनियर के लिए बेहद आवश्यक हैं।

विश्वविद्यालयों को भी क्यों चाहिए एंट्रेंस आधारित एडमिशन

एंट्रेंस टेस्ट से छात्रों की गणित, भौतिकी और कंप्यूटर साइंस जैसी मूलभूत विषयों की समझ को मापा जाता है। इससे कॉलेज उन छात्रों का चयन कर पाते हैं जिनके पास B.Tech प्रोग्राम के लिए सही क्षमता और बुनियादी ज्ञान मौजूद है।

इससे कॉलेज की अकादमिक गुणवत्ता बनी रहती है, स्वस्थ प्रतियोगिता का माहौल बनता है और छात्र अधिक मेहनत और फोकस के साथ पढ़ाई करते हैं। 

पारंपरिक परीक्षा केंद्रों में असहज छात्रों के लिए: GCSET एक बेहतर विकल्प

कुछ छात्रों के लिए एग्जाम सेंटर जाकर परीक्षा देना मुश्किल हो सकता है—जैसे दूरी, स्वास्थ्य या अन्य कारणों से। ऐसे छात्रों के लिए GCSET (Global Computer Science Entrance Test) एक उपयुक्त विकल्प है।

GCSET की खासियत:

- पूरी तरह ऑनलाइन परीक्षा

- घर बैठे एग्जाम देने की सुविधा

- राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा के बराबर विश्वसनीयता

- देश के शीर्ष कंप्यूटर साइंस विश्वविद्यालयों में प्रवेश का अवसर

अधिक जानकारी और आवेदन के लिए वेबसाइट देखें: gcset.org 

GCSET या अन्य नेशनल-लेवल एंट्रेंस टेस्ट के जरिए B.Tech में एडमिशन लेने वाले छात्र न सिर्फ प्रतिष्ठित संस्थानों में जगह पाते हैं, बल्कि अपने इंजीनियरिंग करियर के लिए एक मजबूत नींव भी तैयार करते हैं। अगर आप गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर अवसर और सफल भविष्य चाहते हैं, तो एंट्रेंस टेस्ट के माध्यम से एडमिशन लेना ही सबसे समझदारी भरा कदम है।

फ्री कंसल्टेशन के लिए कॉल करें: 8071296499

 

 

साल 2025 में भारत में एक बड़ा खुलासा हुआ—कई फर्जी लॉ कॉलेज छात्रों को नकली डिग्रियां बांट रहे थे। इस घोटाले के सामने आने के बाद यह और स्पष्ट हो गया कि लॉ कोर्सेज में प्रवेश के लिए सही एंट्रेंस एग्जाम देना बेहद जरूरी है। CLAT या AICLET जैसे मान्यता प्राप्त एग्जाम देकर ही छात्र मान्य और भरोसेमंद विश्वविद्यालयों में दाखिला पा सकते हैं। नीचे दिए गए कॉलेजों की सूची आपके लिए सही निजी लॉ स्कूल चुनने में मदद करेगी, ताकि आप सुरक्षित और मजबूत कानूनी करियर बना सकें।

भारत के शीर्ष प्राइवेट लॉ कॉलेज

- लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा, पंजाब

- एमिटी यूनिवर्सिटी, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

- एमिटी यूनिवर्सिटी, जयपुर, राजस्थान

- एमिटी यूनिवर्सिटी, मुंबई

- एमिटी यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम (मानेसर)

- एमिटी यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु, कर्नाटक

- चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी, मोहाली, पंजाब

- चंडीगढ़ ग्रुप ऑफ कॉलेज, झंजेड़ी, मोहाली

- बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश

- शूलिनी यूनिवर्सिटी, बजहोल, हिमाचल प्रदेश

- मानव रचना यूनिवर्सिटी, फरीदाबाद, हरियाणा

- पारुल यूनिवर्सिटी, वडोदरा, गुजरात

- एलायंस यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु

- RIMT यूनिवर्सिटी, मंडी गोबिंदगढ़, पंजाब

- महर्षि मारकंडेश्वर यूनिवर्सिटी, मुल्लाना अंबाला, हरियाणा

- दयानंद सागर यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु

- चाणक्य यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु

- सुषांत यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम, हरियाणा

- JECRC यूनिवर्सिटी, जयपुर, राजस्थान

- गीता यूनिवर्सिटी, हरियाणा

- IILM यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम, हरियाणा

- अर्पिजय सत्या यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम, हरियाणा

- उत्तरांचल यूनिवर्सिटी, देहरादून, उत्तराखंड

- जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी, राजस्थान

- विवेकानंद ग्लोबल यूनिवर्सिटी, जयपुर, राजस्थान

- रायत बहरा यूनिवर्सिटी, पंजाब

- बहरा यूनिवर्सिटी, हिमाचल प्रदेश

- इन्वर्टिस यूनिवर्सिटी, बरेली, उत्तर प्रदेश

- ओम स्टर्लिंग ग्लोबल यूनिवर्सिटी, हरियाणा

- गोकुल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सिद्धपुर, गुजरात

एंट्रेंस एग्जाम फर्जी लॉ कॉलेजों से बचाव कैसे करता है?

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने 20 से ज्यादा अनधिकृत लॉ कॉलेजों का पता लगाया जो हजारों छात्रों को फर्जी डिग्रियां दे रहे थे। इससे स्टूडेंट्स का समय, पैसा और करियर—तीनों खतरे में पड़ रहे थे।

सही प्राइवेट लॉ कॉलेज CLAT, AILET या AICLET जैसे राष्ट्रीय स्तर के एग्जाम के आधार पर छात्रों का चयन करते हैं। ये एग्जाम आपकी योग्यता, तर्कशक्ति और ज्ञान को परखते हैं। एंट्रेंस-आधारित प्रवेश से छात्र NBA/NAAC मान्यता प्राप्त कार्यक्रमों में दाखिला लेते हैं, जिनके प्लेसमेंट असली और सुरक्षित होते हैं—फर्जी डिप्लोमा के उलट, जिन्हें कोर्ट मान्यता नहीं देता।

आज जब कानूनी नौकरियां तेजी से बढ़ रही हैं, सही एंट्रेंस एग्जाम देना आपके करियर और निवेश दोनों की सुरक्षा करता है। इसलिए एडमिशन से पहले NIRF रैंकिंग, BCI स्टेटस और एंट्रेंस आवश्यकताओं की जांच जरूर करें।

अपडेटेड रहें, सतर्क रहें और मजबूत करियर की नींव रखें।

फ्री काउंसलिंग के लिए कॉल करें: 08071296498

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

2026 के लिए भारत के सबसे अच्छे प्राइवेट लॉ कॉलेज कौन से हैं?

- लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी (फगवाड़ा), एमिटी यूनिवर्सिटी (लखनऊ, जयपुर, मुंबई, गुरुग्राम, बेंगलुरु), चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी (मोहाली), बेनेट यूनिवर्सिटी (ग्रेटर नोएडा) और शूलिनी यूनिवर्सिटी बेहतरीन विकल्प माने जाते हैं। ये CLAT या AICLET 2026 के जरिए एडमिशन देते हैं और अच्छे प्लेसमेंट उपलब्ध कराते हैं।

फर्जी लॉ डिग्रियां छात्रों को कैसे प्रभावित करती हैं?

- फर्जी कॉलेजों की डिग्री से नौकरी रिजेक्ट हो जाती है, BCI रजिस्ट्रेशन निरस्त हो सकता है और कोर्ट ऐसे डिग्रीधारकों को प्रैक्टिस की अनुमति नहीं देता। साथ ही फीस और समय दोनों बर्बाद हो जाते हैं।

CLAT या AICLET जैसे एग्जाम क्यों देना चाहिए?

- ये राष्ट्रीय स्तर के टेस्ट मेरिट के आधार पर BCI-प्रमाणित कॉलेजों में प्रवेश सुनिश्चित करते हैं। इससे छात्रों को वे NBA/NAAC कार्यक्रम मिलते हैं जो वास्तविक प्लेसमेंट प्रदान करते हैं। 2025 में BCI द्वारा प्रतिबंधित कई कॉलेजों से यह सुरक्षित विकल्प है।

क्या एमिटी और चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी लॉ कोर्सेस के लिए अच्छी हैं?

- हाँ। एमिटी के कॉर्पोरेट-ओरिएंटेड BA LLB प्रोग्राम्स (₹10–15 LPA प्लेसमेंट) और चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी की 95% प्लेसमेंट दर उन्हें मजबूत विकल्प बनाती है।

कैसे पता करें कि कोई निजी लॉ कॉलेज सही है या नहीं?

- BCI अप्रूवल, NIRF 2025 रैंकिंग, NAAC ग्रेड और एंट्रेंस आवश्यकताओं को nirfindia.org या bci.org.in पर जांचें। BCI द्वारा डिबार किए गए कॉलेजों से दूर रहें।

क्या CLAT के बिना भी इन कॉलेजों में प्रवेश मिल सकता है?

- हाँ, कई विश्वविद्यालय जैसे LPU (LPUNEST), Parul University या JECRC, AICLET स्कोर स्वीकार करते हैं। यानी एक ही एग्जाम से कई कॉलेजों में आवेदन संभव है।

 

भारत में डिज़ाइन इंडस्ट्री तेजी से बदल रही है — अब यह सिर्फ एक क्रिएटिव सेक्टर नहीं, बल्कि बिज़नेस इनोवेशन, यूज़र एक्सपीरियंस और ब्रांड आइडेंटिटी की सबसे बड़ी ताकत बन चुकी है। तकनीक और क्रिएटिविटी की सीमाएँ लगातार खत्म हो रही हैं, जिससे स्किल्ड डिज़ाइनर्स के लिए नए अवसर खुल रहे हैं।

AIDAT (All India Design Aptitude Test) की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए यह समझना जरूरी है कि इंडस्ट्री असल में किन स्किल्स की मांग कर रही है। यह सिर्फ एंट्रेंस परीक्षा पास करने की बात नहीं है, बल्कि अगले 10 साल के करियर की ठोस नींव रखने जैसा है।

डिज़ाइन इंडस्ट्री की हकीकत

भारत की क्रिएटिव इकॉनमी तेजी से आगे बढ़ रही है। जिन कंपनियों का फोकस डिज़ाइन पर है, वे राजस्व और मार्केट वैल्यू में अपने प्रतिस्पर्धियों से आगे हैं। चाहे बेंगलुरु के स्टार्टअप्स हों या मुंबई की बड़ी कंपनियाँ — सभी को ऐसे डिज़ाइनर्स चाहिए जो स्ट्रैटेजिक, कोलैबोरेटिव और रिज़ल्ट-ओरिएंटेड हों।

ताज़ा अनुमान बताते हैं कि प्रतिष्ठित डिज़ाइन कॉलेजों से पास-आउट फ्रेशर्स की औसत शुरुआती सैलरी ₹4.5 लाख से ₹9 लाख प्रतिवर्ष होती है, जबकि UI/UX, ब्रांड स्ट्रैटेजी और डिज़ाइन लीडरशिप में अनुभवी प्रोफेशनल्स की आय इससे कई गुना अधिक है। लेकिन याद रहे — सिर्फ तकनीकी स्किल्स काफी नहीं। 

2026 में किन स्किल्स की सबसे ज़्यादा जरूरत?

1. सजावट नहीं — कॉन्सेप्ट और प्रॉब्लम सॉल्विंग

डिज़ाइन का मतलब सिर्फ चीज़ों को सुंदर बनाना नहीं, बल्कि स्मार्ट समाधान देना है।

जैसे:

ई-कॉमर्स कंपनी को “कार्ट एबैंडनमेंट” कम करना हो

हेल्थ-टेक स्टार्टअप को मरीजों का ऑनबोर्डिंग आसान करना हो

तो वहाँ ऐसे डिज़ाइनर्स चाहिए जो सिस्टमेटिक सोच रखते हों।

कैसे विकसित करें? 

- रोज़मर्रा की चीज़ों पर सवाल उठाएँ — यह ऐप ऐसा क्यों काम करता है?

- लाइफ में आने वाली समस्याओं को नोट कर समाधान स्केच करें

- Swiggy, PhonePe, Flipkart जैसी कंपनियों के केस स्टडी पढ़ें

- डिज़ाइन थिंकिंग वर्कशॉप, हैकाथॉन में भाग लें

- सौंदर्य तक सीमित न रहें — असली समस्याओं को हल करने वाले प्रोजेक्ट करें

2. डिज़ाइन के ज़रिए प्रभावी कम्युनिकेशन

यूज़र हमेशा डिज़ाइन थ्योरी नहीं समझता, पर गलत डिज़ाइन तुरंत पकड़ लेता है।

एक डिज़ाइनर का काम होता है:

- जटिल जानकारी को सरल और आकर्षक बनाना

- यूज़र की नज़र सही जगह ले जाना

- उचित भावनात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न करना

इसके लिए कॉन्टेक्स्ट, एक्सेसिबिलिटी, और विजुअल हायरार्की की समझ ज़रूरी है।

कैसे सुधारें?

- सफल भारतीय ब्रांड्स की विजुअल आइडेंटिटी का अध्ययन करें

- रंगों के सांस्कृतिक अर्थ समझें

- अलग-अलग आयु, भाषा व क्षमता वाले उपयोगकर्ताओं के लिए डिज़ाइन करें

- फेल हुए डिज़ाइनों का विश्लेषण करें — समस्या कहाँ थी?

3. डिजिटल फ्लुएंसी अब बेसिक है

2026 तक "मुझे फोटोशॉप आता है" कहना ऐसा होगा जैसे "मैं Word इस्तेमाल कर लेता हूँ"।

आपको चाहिए:

- फिग्मा, 3D टूल्स, AI-असिस्टेड डिज़ाइन

- मोशन डिज़ाइन की समझ

- डिज़ाइन सिस्टम, हैंडऑफ और फाइल फॉर्मैट्स की जानकारी

कैसे सीखें?

- हर बार नया टूल सीखने से पहले एक टूल में महारत हासिल करें

- सिर्फ फीचर्स नहीं — इंडस्ट्री वर्कफ़्लो सीखें

- रियल प्रोजेक्ट्स बनाएं, न कि सिर्फ ट्यूटोरियल फॉलो करें

- डिज़ाइन कम्युनिटी से जुड़ें

4. डिज़ाइन निर्णय डेटा पर आधारित हों 

प्रोफेशनल डिज़ाइनर अनुमानों पर नहीं, रिसर्च पर काम करते हैं।

उदाहरण: 

फ़ैशन डिज़ाइनर्स — सेल्स ट्रेंड्स का विश्लेषण

इंटीरियर डिज़ाइनर्स — स्पेशियल साइकोलॉजी और सस्टेनिबिलिटी

ब्रांड डिज़ाइनर्स — प्रतियोगी विश्लेषण

कैसे सुधारें?

- यूज़र रिसर्च, सर्वे, और टेस्टिंग करें

- केस स्टडी पढ़ें

- एनालिटिक्स टूल्स और बिज़नेस मेट्रिक्स समझें

- अपने प्रोजेक्ट्स में इनसाइट्स शामिल करें

5. टीमवर्क और कोलैबोरेशन

आज का डिज़ाइन केवल क्रिएटिव टैलेंट नहीं— क्लाइंट्स, डेवलपर्स, प्रोडक्ट मैनेजर्स और मार्केटर्स के साथ तालमेल है।

कैसे मजबूत बनाएं?

- फ़्रीलांस प्रोजेक्ट्स लें

- स्टूडेंट क्लब्स/कलेक्टिव्स से जुड़ें

- टीम कम्पटीशंस में हिस्सा लें

- प्रोफेशनल तरीके से फीडबैक लें और दें

6. फ्लेक्सिबिलिटी — भविष्य सुरक्षित रखने की चाबी

डिज़ाइन टूल्स और ट्रेंड्स बदलते रहते हैं। जो नहीं बदलता — सीखते रहने की क्षमता।

कैसे आगे बढ़ें?

- AR, जनरेटिव AI, स्पेशियल कंप्यूटिंग जैसे नए तकनीकी क्षेत्रों को आज़माएं

- डिज़ाइन कॉन्फ्रेंसेज़ और वेबिनार में शामिल हों

- टेक, बिज़नेस, मनोविज्ञान पर भी पढ़ें

- पुरानी आदतें छोड़ नई स्किल्स सीखने के लिए तैयार रहें

पोर्टफोलियो: डिज़ाइन करियर का सबसे महत्वपूर्ण हथियार

AIDAT आपको कॉलेज तक पहुंचाएगा। पोर्टफोलियो आपको नौकरी दिलाएगा।

क्या ज़रूरी है?

- 8–12 चुनिंदा प्रोजेक्ट्स

- हर प्रोजेक्ट का केस स्टडी — प्रोसेस, रिसर्च, फेलियर्स सहित

- अपनी भूमिका स्पष्ट लिखें

- वास्तविक समस्याओं के समाधान दिखाएं

- लगातार अपडेट्स और सुधार

AIDAT कैसे Crack करें? (टॉपर स्ट्रैटेजी)

बेसिक्स में महारत — ड्रॉइंग, डिज़ाइन प्रिंसिपल्स, अनुपात व परिप्रेक्ष्य

डिज़ाइन वर्ल्ड से अपडेट रहें — भारतीय/अंतरराष्ट्रीय डिज़ाइनर्स, डिज़ाइन मूवमेंट्स

टाइम मैनेजमेंट — समय-सीमित अभ्यास

ऑब्ज़र्वेशन स्किल्स — रोज़ स्केचिंग

ओरिजनल आइडियाज — एक समस्या के अनेक समाधान निकालें

मॉक टेस्ट और रिव्यू — कमज़ोरियां पहचानकर सुधारें

डिज़ाइन में करियर के अवसर (AIDAT के बाद)

डिजिटल डिज़ाइन

- UI/UX, प्रोडक्ट डिज़ाइन, ऐप/वेब एक्सपीरियंस डिज़ाइन

विज़ुअल कम्युनिकेशन 

- ग्राफिक डिज़ाइन, ब्रांड आइडेंटिटी, पब्लिकेशन डिज़ाइन

स्पेशल डिज़ाइन

- इंटीरियर डिज़ाइन, एग्ज़िबिशन और रिटेल स्पेस प्लानिंग

फैशन और लाइफस्टाइल 

- फैशन, टेक्सटाइल, एक्सेसरी डिज़ाइन, फैशन स्टाइलिंग

मोशन और एक्सपीरियंस डिज़ाइन

- ऐनिमेशन, मोशन ग्राफिक्स, एक्सपीरियंस डिज़ाइन

उभरते क्षेत्र

- सर्विस डिज़ाइन, डिज़ाइन रिसर्च, डिज़ाइन स्ट्रैटेजी

अनुभव बढ़ने के साथ:

- क्रिएटिव डायरेक्टर

- डिज़ाइन लीडरशिप

- उद्यमिता

- अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में काम

डिज़ाइन कोर्सेज़ (AIDAT के माध्यम से)

डिज़ाइन सफलता जन्मजात टैलेंट पर नहीं, लगातार अभ्यास और जिज्ञासा पर निर्भर है। हर महान डिज़ाइनर ने यहीं से शुरुआत की है— थोड़ी शंका, मगर पूरा विश्वास… पहला कदम उठाने को।

AIDAT आपका शुरुआत बिंदु है— असली सफर कॉलेज के बाद शुरू होता है

डिज़ाइन इंडस्ट्री को नए विज़न, विविध दृष्टिकोण, और इनोवेटिव सोच वाले डिज़ाइनर्स की ज़रूरत है। तो शुरुआत कीजिए—

AIDAT की ऑफिशियल वेबसाइट पर रजिस्टर कीजिए।

याद रखें — आपका डिज़ाइन करियर कॉलेज में नहीं, बल्कि आज से शुरू होता है,

जब आप इसे गंभीरता से लेने लगते हैं।

 

आज के समय में एमबीए करना आपके स्किल सेट को मजबूत करने और आपकी सैलरी को बढ़ाने का सबसे आसान तरीका माना जाता है। लेकिन अगर आप कॉलेज के फाइनल एग्जाम में उलझे हैं या रोज़मर्रा की 9–से–5 नौकरी में फंसे हुए हैं, तो एमबीए की तैयारी करना काफी थकाने वाला हो सकता है। परीक्षा केंद्रों की भीड़, ट्रैफिक जाम और महंगी फीस—इन सबमें वक्त और पैसा खर्च करना अब इतना जरूरी नहीं रह गया है, खासकर तब जब जानकारी और ज्ञान कुछ ही क्लिक पर उपलब्ध हों।

ऐसे ही समय में GMCAT एंट्रेंस एग्जाम सामने आता है—एक ऐसा ऑनलाइन परीक्षा माध्यम जो आपको एमबीए करने का मौका देता है, चाहे आप उत्तर भारत में हों, दक्षिण में या देश के किसी भी कोने में। यह पूरी तरह से आधुनिक जरूरतों के हिसाब से तैयार किया गया ऑनलाइन एंट्रेंस टेस्ट है। आइए जानें क्यों आज के एमबीए स्टूडेंट्स मैनेजमेंट में ऑनलाइन एंट्रेंस टेस्ट को ज्यादा पसंद कर रहे हैं: 

1. अपनी सुविधा के अनुसार परीक्षा दें

फिक्स्ड एग्जाम डेट्स अब परेशानी बन गई हैं। GMCAT में आप अपनी सुविधा से परीक्षा दे सकते हैं—चाहे घर के सोफे पर हों, बेंगलुरु के किसी कैफे में, दिल्ली के हॉस्टल रूम में या कहीं भी। न परीक्षा केंद्र जाने का झंझट, न ‘बस छूट जाएगी’ वाली टेंशन। कामकाजी पेशेवर हों या कॉलेज स्टूडेंट, सभी के लिए यह तनाव-मुक्त विकल्प है।

2. बजट-फ्रेंडली और बेहद सुविधाजनक

बड़ी परीक्षाओं की फीस, ट्रैवल और ठहरने के खर्च में काफी पैसा लग जाता है। GMCAT इन सबको खत्म कर देता है—कम फीस, कोई ट्रैवल खर्च नहीं और सीट पाने का आसान तरीका। अगर किसी कारण से परीक्षा मिस हो जाए, तो दोबारा रजिस्ट्रेशन की जरूरत नहीं—सिर्फ अपने काउंसलर से संपर्क करें और एग्जाम रीशेड्यूल करा लें।

ध्यान दें: पेमेंट करने से पहले दिए गए नंबर पर जरूर कॉल करें।

3. वही स्किल्स की टेस्टिंग जो वाकई मायने रखती हैं

आज का एमबीए रटने पर नहीं, बल्कि डिजिटल स्किल्स पर आधारित है। GMCAT में एडॉप्टिव क्वेश्चन और एआई प्रॉक्टरिंग का इस्तेमाल होता है, जो आपकी असली प्रॉब्लम-सॉल्विंग और मैनेजमेंट क्षमता को परखते हैं—यही स्किल्स आगे जूम मीटिंग या फिनटेक जॉब्स में काम आती हैं।

4. तेज़ रिजल्ट और सुनिश्चित सीट

जहां अन्य परीक्षाओं के रिजल्ट में हफ्तों लग जाते हैं, वहीं GMCAT के नतीजे 2–3 दिनों में घोषित हो जाते हैं। इससे स्टूडेंट्स जल्दी फैसला ले पाते हैं कि उन्हें किस कॉलेज या इंस्टिट्यूट में एडमिशन लेना है और समय पर सीट भी सुनिश्चित कर सकते हैं।

5. भारत के टॉप बी-स्कूल्स में मान्यता प्राप्त

एक परीक्षा—100 से ज्यादा दरवाजे! GMCAT की वैलिडिटी भारत के 100+ शीर्ष बी-स्कूल्स में है। यह आपके प्रबंधकीय कौशल को पहचानकर आपको सही संस्थान में प्रवेश दिलाने में मदद करता है, जहां से बेहतर प्लेसमेंट अवसर मिलते हैं।

अगर आप 2026 के लिए सबसे भरोसेमंद ऑनलाइन एमबीए एंट्रेंस टेस्ट की तलाश में हैं, तो GMCAT एक बेहतरीन विकल्प साबित हो सकता है।

कैसे करें शुरुआत?

अब और इंतजार न करें। GMCAT की आधिकारिक वेबसाइट पर जाकर रजिस्टर करें और अपनी एमबीए यात्रा शुरू करें। वेबसाइट पर सिलेबस, पात्रता और फीस की पूरी जानकारी उपलब्ध है।

फ्री काउंसलिंग या विशेषज्ञ सलाह के लिए कॉल करें: 8071296497

 

ऑल इंडिया कॉमन लॉ एंट्रेंस टेस्ट (AICLET) राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षा है, जिसे विशेष रूप से उन छात्रों के लिए तैयार किया गया है जो भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कानून की पढ़ाई करना चाहते हैं। यह परीक्षा अंडरग्रेजुएट से लेकर पोस्टग्रेजुएट तक सभी स्तरों पर आयोजित की जाती है, जिससे छात्र अपनी शिक्षा के विभिन्न चरणों में कानूनी क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं।

AICLET 2026 के लिए ऑनलाइन पंजीकरण 1 सितंबर 2025 से शुरू हो चुके हैं, जो देशभर के छात्रों के लिए एक बड़ा अवसर है।

AICLET 2026 की महत्वपूर्ण तिथियाँ

1 सितंबर 2025 - ऑनलाइन पंजीकरण शुरू होने की तिथि 

26 दिसंबर 2025 – ऑनलाइन पंजीकरण की अंतिम तिथि

27 दिसंबर 2025 – परीक्षा तिथि

30 दिसंबर 2025 – परिणाम जारी

एप्लिकेशन फीस

परीक्षार्थियों को आवेदन प्रक्रिया पूरी करने के लिए ₹2000/- शुल्क ऑनलाइन भुगतान करना होगा। यह शुल्क नॉन-रिफंडेबल है और भुगतान सफल होने के बाद ही पंजीकरण पूरा माना जाएगा।

पात्रता (Eligibility)

BA LLB, B.Com LLB, BBA LLB

- 10+2 किसी भी स्ट्रीम से पूरा होना आवश्यक

- पांच वर्षीय इंटीग्रेटेड लॉ प्रोग्राम

- आर्ट्स, कॉमर्स और बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन से जुड़े विषयों के साथ कानून की बुनियादी पढ़ाई

LLB

- किसी भी स्ट्रीम में ग्रेजुएशन आवश्यक

- तीन साल का प्रोग्राम

- कानूनी सिद्धांतों और व्यवहारिक कौशल पर गहरी पकड़ विकसित करने वाला कोर्स

LLM

- तीन या पाँच वर्षीय LLB पूरा होना अनिवार्य

- दो वर्षीय पोस्टग्रेजुएट प्रोग्राम

- कानून के विशेष क्षेत्रों में उन्नत अध्ययन का अवसर

AICLET 2026 परीक्षा प्रारूप

AICLET 2026 परीक्षा पूरी तरह ऑनलाइन आयोजित की जाएगी, जिसमें परीक्षार्थी अपने मोबाइल, लैपटॉप या डेस्कटॉप से आसानी से परीक्षा दे सकेंगे। परीक्षा एक ही प्रश्नपत्र पर आधारित होगी और कुल समय 60 मिनट निर्धारित किया गया है। प्रश्नपत्र केवल अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध होगा। परीक्षा में कुल 100 अंक होंगे और प्रत्येक सही उत्तर के लिए 1 अंक दिया जाएगा। सबसे खास बात यह है कि गलत उत्तर पर कोई नेगेटिव मार्किंग नहीं होगी, इसलिए छात्र बिना किसी डर के सभी प्रश्न हल कर सकते हैं।

भारतीय कानून क्षेत्र में करियर के अवसर

- 1.4 मिलियन से अधिक अधिवक्ता—कॉर्पोरेट, साइबर लॉ जैसे विशेषज्ञ क्षेत्रों में बढ़ती मांग

- कई करियर विकल्प—कॉर्पोरेट लॉ, ज्यूडिशियरी, पब्लिक पॉलिसी, कंसल्टिंग आदि

- ग्लोबल एक्सपोज़र—विदेशी बार परीक्षाओं (UK, USA, Australia) के लिए योग्य

- शीर्ष लॉ फर्मों में ₹10–15 लाख तक शुरुआती वेतन

- सैकड़ों ज्यूडिशियल रिक्तियाँ हर साल खुलती हैं

- 20,000+ केस रोज़ दर्ज—कानूनी पेशे में स्थिरता

- लीगल टेक का विस्तार—AI आधारित शोध और वर्चुअल कोर्टरूम में नए अवसर

कोर्स डिटेल्स

BA LLB (5 वर्ष)

- कानून के साथ इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन।

करियर विकल्प:

लीगल एडवाइज़र, कॉर्पोरेट लॉयर, पब्लिक प्रॉसीक्यूटर, ज्यूडिशियल सर्विसेज, लीगल जर्नलिस्ट, ह्यूमन राइट्स लॉयर आदि।

B.Com LLB (5 वर्ष)

- कॉमर्स और कानून का संयुक्त अध्ययन—टैक्सेशन, कॉर्पोरेट लॉ, अकाउंटिंग आदि।

करियर विकल्प:

टैक्स कंसल्टेंट, कॉर्पोरेट लॉयर, कंप्लायंस ऑफिसर, बैंकिंग & फाइनेंस लॉयर, लीगल एडवाइज़र आदि।

BBA LLB (5 वर्ष)

- बिज़नेस और कानून का मिश्रण—मैनेजमेंट, मार्केटिंग, कॉर्पोरेट लॉ आदि।

करियर विकल्प:

कॉर्पोरेट लॉयर, लीगल कंसल्टेंट, बिज़नेस डेवलपमेंट (लीगल), HR मैनेजर (लीगल), स्टार्टअप फाउंडर आदि।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

क्या गलत उत्तर पर नेगेटिव मार्किंग है?

- नहीं, गलत उत्तर पर कोई नेगेटिव मार्किंग नहीं है।

परीक्षा की अवधि कितनी होगी?

- लॉ एंट्रेंस एग्ज़ाम की अवधि 2 घंटे होगी।

तैयारी कैसे करें?

- पूरा सिलेबस पढ़ें, परीक्षा पैटर्न समझें और पिछले सालों के पेपर हल करें।

क्या परीक्षा के लिए कोई शुल्क है?

- हाँ, आवेदन शुल्क ₹2000/- है।

क्या मैं अपनी पसंद का कैंपस चुन सकता हूँ?

- हाँ, आवेदन के दौरान कैंपस का चयन किया जा सकता है।

कौन-सा लॉ कोर्स सबसे अच्छा है?

- BA LLB, BBA LLB, B.Com LLB और LLB लोकप्रिय कोर्स हैं। कॉर्पोरेट लॉ, IPR, टैक्सेशन जैसी स्पेशलाइजेशन की भी अधिक मांग है।

लॉ कोर्स में क्या पढ़ाया जाता है?

- विधि प्रणाली, केस स्टडी, कोर्टरूम प्रैक्टिस, शोध, कानूनी फ्रेमवर्क आदि।

लॉ डिग्री का उपयोग क्या है?

- यह डिग्री न्यायिक सेवाओं, कॉर्पोरेट लॉ, लीगल कंसल्टिंग, विवाद समाधान और पब्लिक पॉलिसी में करियर की राह खोलती है।

कुछ शीर्ष लॉ कॉलेज कौन-से हैं?

- NLSIU बेंगलुरु, NALSAR हैदराबाद, दिल्ली विश्वविद्यालय, सिम्बायोसिस लॉ स्कूल पुणे आदि।

कौन-से लॉ कोर्स में सबसे ज्यादा वेतन मिलता है?

- कॉर्पोरेट लॉ, IPR, टैक्सेशन और शीर्ष लॉ फर्म्स में भूमिकाएँ बेहतर वेतन देती हैं।

अगर आप कानून के क्षेत्र में भविष्य बनाना चाहते हैं, तो AICLET 2026 आपके लिए एक सुनहरा अवसर है। जल्द आवेदन करें और भारत के शीर्ष लॉ कॉलेजों में प्रवेश पाने का मौका हासिल करें।

 

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'सिटी ऑफ जॉय' कहे जाने वाले कोलकाता शहर में 16 अप्रैल का दिन वाकई उत्साह से भरा रहा, जब 'एडइनबॉक्स' ने अपना विस्तार करते हुए यहाँ के लोगों के लिए अपनी नई ब्रांच का शुभारम्भ किया। ख़ास बात यह रही कि इस मौके पर इटली से आये मेहमानों के साथ 'एडइनबॉक्स' की पूरी टीम मौजूद थी। पश्चिम बंगाल के कोलकाता में उदघाटित इस कार्यालय से पूर्व 'एडइनबॉक्स' की शाखाएं दिल्ली, भुवनेश्वर, लखनऊ और बैंगलोर जैसे शहरों में पहले से कार्य कर रही हैं।

कोलकाता में एडइनबॉक्स की नयी ब्रांच के उद्घाटन कार्यक्रम में इटली के यूनिमार्कोनी यूनिवर्सिटी के प्रतिनिधिमंडल की गरिमामयी उपस्थिति ने इस अवसर को तो ख़ास बनाया ही, सहयोग और साझेदारी की भावना को भी इससे बल मिला। विशिष्ट अतिथियों आर्टुरो लावेल, लियो डोनाटो और डारिना चेशेवा ने 'एडइनबॉक्स' के एडिटर उज्ज्वल अनु चौधरी, बिजनेस और कंप्यूटर साइंस के डोमेन लीडर डॉ. नवीन दास, ग्लोबल मीडिया एजुकेशन काउंसिल डोमेन को लीड कर रहीं मनुश्री मैती और एडिटोरियल कोऑर्डिनेटर समन्वयक शताक्षी गांगुली के नेतृत्व में कोलकाता टीम के साथ हाथ मिलाया। 

समारोह की शुरुआत अतिथियों का गर्मजोशी के साथ स्वागत से हुई। तत्पश्चात दोनों पक्षों के बीच विचारों और दृष्टिकोणों का सकारात्मक आदान-प्रदान हुआ। डारिना ने पारम्परिक तरीके से रिबन काटकर आधिकारिक तौर पर कार्यालय का उद्घाटन किया और इस मौके को आपसी सहयोग के प्रयासों की दिशा में एक नए अध्याय की शुरुआत बताया। बाकायदा इस दौरान यूनिमार्कोनी विश्वविद्यालय के प्रतिनिधिमंडल और EdInbox.com टीम के बीच एक साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर भी हुआ। यह पहल शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार और प्रगति के लिए साझा प्रतिबद्धता को दर्शाता है, साथ ही भविष्य में अधिक से अधिक छात्रों का नेतृत्व कर इस पहल से उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है ताकि वे वैश्विक मंचों पर सफलता के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। 

समारोह के समापन की वेला पर दोनों पक्षों द्वारा एक दूसरे को स्मारिकाएं भेंट की गयीं।  'एडइनबॉक्स' की नई ब्रांच के उद्घाटन के साथ इस आदान-प्रदान की औपचारिकता से दोनों टीमों के बीच मित्रता और सहयोग के बंधन भी उदघाटित हुए।अंततः वक़्त मेहमानों को अलविदा कहने का था, 'एडइनबॉक्स' की कोलकाता टीम ने अतिथियों को विदा तो किया मगर इस भरोसे और प्रण के साथ कि यह नयी पहल भविष्य में संबंधों की प्रगाढ़ता और विकास के नए ठौर तक पहुंचेगी।  

बाज़ार नियामक भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने अपनी तकनीकी, जांच और फॉरेंसिक क्षमताओं को और सशक्त बनाने के लिए नेशनल फॉरेंसिक साइंसेज यूनिवर्सिटी (NFSU) के साथ एक महत्वपूर्ण समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किए हैं। यह समझौता 24 नवंबर 2025 को किया गया।

NFSU, जिसे नेशनल फॉरेंसिक साइंसेज यूनिवर्सिटी एक्ट, 2020 के तहत स्थापित किया गया था, देश में फॉरेंसिक विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान का प्रमुख संस्थान है।

SEBI की डिजिटल और फॉरेंसिक क्षमता बढ़ाने पर फोकस

इस समझौते का उद्देश्य SEBI की क्षमता को कई अहम क्षेत्रों में मजबूत करना है, जिनमें डिजिटल फॉरेंसिक्स, फॉरेंसिक अकाउंटिंग, साइबर सिक्योरिटी, डेटा एनालिटिक्स शामिल हैं। 

NFSU, SEBI अधिकारियों के लिए विशेषीकृत और कस्टमाइज़्ड ट्रेनिंग प्रोग्राम तैयार करेगा और प्रदान करेगा, जिससे SEBI की कार्यक्षमता और रेगुलेटरी निगरानी क्षमता में सुधार हो सके। दोनों संस्थान मिलकर ट्रेनिंग सेशन, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस और वर्कशॉप का आयोजन भी करेंगे।

MoU के प्रमुख बिंदु

- SEBI के लिए आधुनिक फॉरेंसिक इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास, जिसमें साइबर सिक्योरिटी, डिजिटल फॉरेंसिक्स और संबंधित क्षेत्रों में अत्याधुनिक प्रयोगशालाओं की स्थापना शामिल होगी।

- NFSU, SEBI को कंसल्टेंसी सेवाएं भी प्रदान कर सकता है ताकि जांच क्षमताओं को आधुनिक स्तर तक बढ़ाया जा सके।

- दोनों संस्थान, लागू कानूनों के तहत, ज्ञान और संसाधनों को साझा करेंगे ताकि अपने-अपने दायित्वों को अधिक कुशलता से निभा सकें।

कॉरपोरेट फ्रॉड और फंड डायवर्जन मामलों की जांच में मिलेगी मजबूती

यह कदम SEBI को कॉरपोरेट धोखाधड़ी, फंड डायवर्जन और अन्य जटिल मामलों से निपटने में अधिक प्रभावी बनाएगा। डिजिटल और फॉरेंसिक उपकरणों के मजबूत होने से SEBI की रेगुलेटरी पकड़ और मजबूत होगी और बाजार निगरानी में पारदर्शिता बढ़ेगी।

 

12वीं के बाद करियर चुनना आज पहले जैसा सीमित नहीं रह गया है। अब सिर्फ इंजीनियरिंग, मेडिकल या सीए ही सफलता का रास्ता नहीं हैं। बदलती अर्थव्यवस्था, डिजिटल तकनीक और नए कामकाजी माहौल ने लड़कियों के लिए कई ऐसे करियर विकल्प खोल दिए हैं, जिनमें न केवल अच्छी कमाई है, बल्कि पहचान, स्थिरता और आगे बढ़ने के मौके भी मौजूद हैं। अगर कोई छात्रा अपनी रुचि और क्षमता के हिसाब से सोचती है, तो पारंपरिक पढ़ाई से अलग रास्ता भी एक मजबूत करियर बना सकता है।

डिजिटल मार्केटिंग और कंटेंट क्रिएशन

आज के दौर में डिजिटल मार्केटिंग और कंटेंट क्रिएशन तेजी से उभरता हुआ क्षेत्र है। लगभग हर कारोबार ऑनलाइन हो चुका है और कंपनियों को अपनी डिजिटल मौजूदगी मजबूत करने के लिए प्रशिक्षित प्रोफेशनल्स की जरूरत पड़ती है। इस क्षेत्र में वेबसाइट प्रमोशन, सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन (SEO), सोशल मीडिया मैनेजमेंट और कंटेंट स्ट्रैटेजी जैसे काम शामिल हैं। इस फील्ड की खास बात यह है कि कई बार घर से काम करने का विकल्प भी मिल जाता है। 12वीं के बाद छात्राएं इसमें डिप्लोमा या 3 से 6 महीने के सर्टिफिकेट कोर्स के जरिए एंट्री ले सकती हैं। शुरुआत में सैलरी ठीक-ठाक होती है और अनुभव के साथ आय में लगातार बढ़ोतरी देखी जाती है।

डिजाइनिंग 

डिजाइनिंग भी ऐसा ही एक क्षेत्र है, जिसकी मांग कभी खत्म नहीं होती। ब्रांडिंग, विज्ञापन, मोबाइल ऐप और वेबसाइट के दौर में यूएक्स/यूआई डिजाइन, ग्राफिक डिजाइन, फैशन डिजाइन और इंटीरियर डिजाइन जैसे प्रोफेशन लगातार आगे बढ़ रहे हैं। इस क्षेत्र में रचनात्मक सोच और तकनीकी समझ का अच्छा मेल होता है। सही स्किल्स और पोर्टफोलियो के साथ डिजाइनिंग में करियर बनाने वाली छात्राएं अच्छी आय के साथ फ्रीलांस या स्टार्टअप के मौके भी तलाश सकती हैं। अनुभव बढ़ने के साथ जिम्मेदारियां और कमाई दोनों बढ़ती हैं।

डाटा साइंस और एनालिटिक्स 

विज्ञान और आंकड़ों में रुचि रखने वाली छात्राओं के लिए डाटा साइंस और एनालिटिक्स भविष्य का अहम क्षेत्र बन चुका है। आज सरकारी और निजी दोनों सेक्टर में डाटा के आधार पर फैसले लिए जा रहे हैं। इस फील्ड में काम करने के लिए मजबूत अकादमिक बैकग्राउंड जरूरी होता है। आमतौर पर गणित, कंप्यूटर साइंस, फॉरेंसिक साइंस, साइबर सिक्योरिटी या डिजिटल टेक्नोलॉजी से जुड़ी पढ़ाई करने वाले छात्र इस दिशा में आगे बढ़ते हैं। हालांकि रास्ता थोड़ा कठिन जरूर है, लेकिन स्किल्स मजबूत हों तो इस क्षेत्र में करियर की संभावनाएं काफी व्यापक हैं।

कुल मिलाकर, आज लड़कियों के सामने करियर के विकल्प पहले से कहीं ज्यादा खुले हुए हैं। डिजिटल मार्केटिंग, डिजाइनिंग और डाटा साइंस जैसे क्षेत्र न सिर्फ बेहतर कमाई देते हैं, बल्कि लंबे समय तक ग्रोथ और स्थिरता भी प्रदान करते हैं। सबसे जरूरी है कि छात्राएं जल्दबाजी में फैसला न लें, अपनी रुचि, क्षमता और भविष्य की जरूरतों को समझें और फिर सही कोर्स और दिशा का चुनाव करें। सही मार्गदर्शन और मेहनत के साथ 12वीं के बाद एक मजबूत और संतोषजनक करियर बनाना पूरी तरह संभव है।

 

भारत में बेरोज़गारों की सबसे बड़ी संख्या उन युवाओं की है जिनके पास डिग्रियाँ तो हैं, लेकिन बाज़ार की जरूरतों के हिसाब से कौशल नहीं।

 

भारत में शिक्षा को लंबे समय तक एक ही नज़रिये से देखा गया—अच्छी डिग्री मतलब अच्छी नौकरी। माता-पिता से लेकर शिक्षक और समाज तक, सबने बच्चों को यही रास्ता दिखाया। लेकिन बदलती अर्थव्यवस्था, तकनीक का दबदबा, और तेज़ी से बदलते रोजगार बाज़ार ने साफ कर दिया है कि सिर्फ डिग्री अब सफलता की गारंटी नहीं है। आज बड़ी कंपनियाँ कौशल को प्राथमिकता दे रही हैं, और यह सवाल गंभीरता से उभर रहा है—क्या भारत के युवाओं को डिग्रियों से ज़्यादा स्किल्स की ज़रूरत है?

सच्चाई यह है कि भारत में बेरोज़गारों की सबसे बड़ी संख्या उन युवाओं की है, जिनके पास डिग्रियाँ तो हैं, लेकिन बाज़ार की जरूरतों के हिसाब से कौशल नहीं। एक तरफ बी.ए., बी.कॉम, बी.एससी., एम.ए. जैसे पारंपरिक कोर्स लाखों छात्रों को डिग्री तो दे रहे हैं, लेकिन उन्हें नौकरी के वास्तविक कौशल—जैसे कम्युनिकेशन, डिजिटल नॉलेज, प्रॉब्लम-सॉल्विंग, या इंडस्ट्री-विशेष तकनीकी स्किल्स—नहीं दे पा रहे। यही वजह है कि कई कंपनियाँ अब सिर्फ डिग्री के आधार पर भर्ती करने से कतराती हैं और उम्मीदवारों की क्षमताओं को परखने के लिए स्किल टेस्ट को प्राथमिक बना चुकी हैं।

भारत की इस चुनौती को समझते हुए सरकार ने भी कौशल आधारित शिक्षा पर जोर बढ़ाया है। नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (NSDC), स्किल इंडिया मिशन, और PMKVY जैसी पहलकदमियों ने लाखों युवाओं को तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया है, लेकिन यह अब भी पर्याप्त नहीं है। देश में अभी भी वह संरचना नहीं बन पाई है जहाँ स्कूल और कॉलेज स्तर पर कौशल को मुख्यधारा की शिक्षा का हिस्सा बनाया जा सके। जबकि जर्मनी, सिंगापुर जैसे देशों में यह मॉडल दशकों से सफल है।

भारत के युवाओं के सामने सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वे डिग्री लेकर भी नौकरी नहीं पाते, और बिना स्किल के अवसर उनके हाथ से छूट जाते हैं। यह स्थिति न केवल छात्रों के लिए निराशाजनक है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी बड़ी चुनौती है। जब करोड़ों युवा डिग्री लेकर भी बेरोज़गार रहते हैं, तो इसका सीधा असर देश की उत्पादकता और विकास पर पड़ता है।

यह भी समझने की जरूरत है कि कौशल आधारित शिक्षा का मतलब सिर्फ तकनीकी प्रशिक्षण नहीं है। डिजिटल लिटरेसी, आलोचनात्मक सोच, संचार कौशल, टीम वर्क, डेटा एनालिसिस, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे कौशल भी आज की जरूरत हैं। यही स्किल्स भविष्य के रोजगार तय करेंगे। दुनिया तेजी से बदल रही है, और जो देश इस बदलाव को अपनाएंगे, वही प्रतिस्पर्धा में टिक पाएंगे।

समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी। अभी भी कई परिवारों में नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी या “डिग्री वाली” नौकरी ही माना जाता है। जबकि आज फ्रीलांसिंग, स्टार्टअप्स, डिजिटल क्रिएशन, और स्किल-बेस्ड प्रोफेशन नए अवसर पैदा कर रहे हैं। भारत की करोड़ों युवा आबादी इस बदलाव के लिए तैयार है, बस उसे दिशा और उपयुक्त प्रशिक्षण की जरूरत है।

अंततः भारत को शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव की जरूरत है—ऐसे बदलाव जो बच्चों को सिर्फ परीक्षाओं के लिए नहीं, बल्कि जीवन और रोजगार के लिए तैयार करें। डिग्री अपनी जगह महत्वपूर्ण है, लेकिन वह तब तक अधूरी है जब तक उसके साथ व्यावहारिक कौशल न जुड़ें। यह समय है जब नीति निर्माता, शिक्षक, अभिभावक और समाज मिलकर यह स्वीकार करें कि आने वाला भारत कौशल पर चलेगा, न कि सिर्फ कागज़ पर लिखी डिग्रियों पर।

भारत दुनिया की सबसे युवा आबादी वाला देश है। अगर इस युवा शक्ति को सही कौशल दिए जाएँ, तो भारत न सिर्फ बेरोजगारी कम कर सकता है, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक नई पहचान भी बना सकता है। यही वह समय है जब हमें तय करना होगा—हम अपने युवाओं को सिर्फ डिग्री देंगे या भविष्य के लिए असली ताकत: कौशल।

 

पाकिस्तान ने तकनीकी क्षेत्र में एक अहम कदम बढ़ाते हुए अपना पहला आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) डेटा सेंटर और AI क्लाउड शुरू कर दिया है। यह पहल टेलीनॉर और डेटा वॉल्ट के संयुक्त प्रयास से संभव हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे देश में AI इस्तेमाल की गति तेजी से बढ़ेगी और कई अहम सेक्टर—जैसे स्वास्थ्य, बैंकिंग, सुरक्षा और कृषि—इससे बड़े पैमाने पर लाभ उठा सकेंगे।

डेटा सेंटर में दुनिया की अग्रणी टेक कंपनी NVIDIA के हाई-पावर GPU लगाए गए हैं, जिनका उपयोग AI मॉडल ट्रेनिंग और बड़े डिजिटल वर्कलोड के लिए किया जाता है। पहले इन चिप्स को पाकिस्तान में लाना मुश्किल और महंगा था, लेकिन अब देश के अंदर ही कंपनियों और संस्थानों को यह सुविधा उपलब्ध होगी।

अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद मिली NVIDIA चिप्स की मंजूरी

डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने NVIDIA के कई AI चिप्स पर निर्यात नियंत्रण लागू किया है—खासतौर पर चीन को। पाकिस्तान भी उन देशों की सूची में शामिल है जिन्हें सीमित एक्सेस मिलती है।

इसके बावजूद डेटा वॉल्ट को 3,000 से अधिक GPU हासिल करने की विशेष मंजूरी मिली है। कंपनी की CEO, मेहविश सलमान अली, ने बताया कि उनका डेटा सेंटर पाकिस्तान का पहला और इकलौता GPU-आधारित सर्विस सेंटर है। उन्होंने कहा कि वैश्विक स्तर पर GPU की भारी कमी और सख्त पाबंदियों के बावजूद कंपनी ने शुरुआती चरण में ही पूरी तैयारी की और NVIDIA के पार्टनर्स के माध्यम से अनुमोदन प्राप्त किया।

डेटा वॉल्ट अब पाकिस्तान की कंपनियों, स्टार्टअप्स और सरकारी संस्थानों को GPU किराए पर उपलब्ध करा रहा है ताकि AI डेवलपमेंट और रिसर्च तेजी से आगे बढ़ सकें।

पाकिस्तान के लिए क्यों अहम है यह डेटा सेंटर?

इस AI डेटा सेंटर से विभिन्न क्षेत्रों में बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं:

बैंकिंग: फ्रॉड डिटेक्शन, स्मार्ट KYC और तेज़ डिजिटल सेवाएं।

हेल्थकेयर: AI-आधारित डायग्नोस्टिक मॉडल, मरीजों के डेटा का बेहतर विश्लेषण।

कृषि: स्मार्ट फार्मिंग, फसल की भविष्यवाणी और ड्रोन आधारित समाधान।

उद्योग और फैक्ट्रियां: ऑटोमेशन, क्वालिटी कंट्रोल और उत्पादन में सुधार।

सरकारी सेवाएं: सुरक्षित डिजिटल रिकॉर्ड, तेज़ पब्लिक सर्विस डिलीवरी।

स्टार्टअप और रिसर्च: उर्दू और स्थानीय भाषाओं के लिए बड़े AI मॉडल और फिनटेक समेत कई सेक्टरों के लिए कस्टमाइज्ड AI समाधान।

इसके साथ ही पाकिस्तान में AI आधारित नवाचार को एक नया प्लेटफॉर्म मिल जाएगा, जिससे स्थानीय स्टार्टअप्स के लिए भी नई संभावनाएं खुलेंगी।

डेटा रहेगा पाकिस्तान के अंदर, साइबर सुरक्षा होगी मजबूत

रिपोर्टों में बताया गया है कि इस पहल का सबसे बड़ा लाभ डेटा सुरक्षा है। 

अब बैंक ट्रांजैक्शन, मरीजों की मेडिकल रिपोर्ट, टेलीकॉम रिकॉर्ड, सरकारी डाटा किसी भी विदेशी सर्वर पर नहीं जाएगा। इससे हैकिंग के खतरे कम होंगे, संवेदनशील जानकारी सुरक्षित रहेगी और राष्ट्रीय डेटा पूरी तरह देश के अंदर ही नियंत्रित रहेगा। यह कदम पाकिस्तान की साइबर सुरक्षा क्षमता को मजबूत करेगा।

पहले विदेशी क्लाउड पर निर्भरता, अब डिजिटल आत्मनिर्भरता

अब तक पाकिस्तान की अधिकतर कंपनियां और सरकारी विभाग AI सेवाओं के लिए विदेशी क्लाउड प्लेटफॉर्म पर निर्भर थे। इससे डेटा बाहर जाता था और सुरक्षा को लेकर चिंताएं बनी रहती थीं। 

नया AI क्लाउड और डेटा सेंटर पाकिस्तान को डिजिटल रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में बड़ा बदलाव माना जा रहा है।

पाकिस्तान के लिए डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन का नया अध्याय

टेलीनॉर और डेटा वॉल्ट का यह AI डेटा सेंटर न सिर्फ पाकिस्तान की टेक क्षमताओं को बढ़ाएगा, बल्कि देश के विभिन्न सेक्टरों में AI अपनाने की गति भी तेज करेगा। यह कदम पाकिस्तान को डेटा सुरक्षा, डिजिटल नवाचार और AI-आधारित अर्थव्यवस्था के नए दौर में प्रवेश करा रहा है।

2026 और उसके बाद, यह परियोजना पाकिस्तान की डिजिटल ग्रोथ स्टोरी में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हो सकती है।  

रणवीर सिंह स्टारर फिल्म ‘धुरंधर’ बॉक्स ऑफिस पर लगातार शानदार प्रदर्शन कर रही है। पाकिस्तान की पृष्ठभूमि पर बनी इस स्पाई थ्रिलर में रणवीर सिंह, अक्षय खन्ना और संजय दत्त के किरदारों को दर्शकों ने खूब सराहा है। मजबूत कहानी और तेज रफ्तार स्क्रीनप्ले की वजह से फिल्म भारतीय दर्शकों के बीच चर्चा में बनी हुई है।

लेकिन इसी बीच फिल्म को लेकर बलूचिस्तान से कड़ी प्रतिक्रिया सामने आई है। बलोच कार्यकर्ता मीर यार बलोच ने एक्स पर एक लंबा पोस्ट जारी करते हुए ‘धुरंधर’ के कई दृश्यों और संवादों पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि फिल्म में बलूच समुदाय को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है और भारत–बलूचिस्तान रिश्तों को नकारात्मक रूप में दिखाया गया है।

भारत–बलूचिस्तान संबंधों को गलत तरीके से दिखाया गया

मीर यार बलोच ने लिखा कि ‘धुरंधर’ में बलूच राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे लोगों की छवि गलत तरीके से पेश की गई है। उनके अनुसार, फिल्म में बलूच समुदाय की जगह गैंगस्टर गतिविधियों पर ज़्यादा फोकस किया गया, जो वास्तविकता से दूर है।

उन्होंने कहा, “फिल्म में हमारे देशभक्त लोगों को गलत दिखाया गया है। भारत–बलूचिस्तान रिश्तों को जानबूझकर नेगेटिव तरीके से दर्शाया गया है… और फिल्म में गैंगस्टर को केंद्र में रखकर हमारी छवि को नुकसान पहुंचाया गया है।” 

26/11 जैसे हमलों का समर्थन कभी नहीं किया

पोस्ट में आगे उन्होंने लिखा कि बलोच लोगों ने कभी भी मुंबई 26/11 हमले को सेलिब्रेट नहीं किया, क्योंकि “हम खुद पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के शिकार हैं।”

उन्होंने साफ किया कि बलूचिस्तान की स्वतंत्रता की मांग धार्मिक आधार पर नहीं है और न ही उन्होंने कभी भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए ISI या किसी अन्य पाकिस्तानी एजेंसी के साथ सहयोग किया है।

बलोच स्वतंत्रता सेनानियों के गलत चित्रण पर भी नाराजगी 

फिल्म में दिखाए गए एक दृश्य का जिक्र करते हुए मीर यार बलोच ने कहा कि स्वतंत्रता सेनानियों को ऐसे पेश किया गया है जैसे वे भारत विरोधी तत्वों को हथियार बेचते हैं।

उनका कहना है, “बलोच फ्रीडम फाइटर्स के पास हमेशा हथियारों की कमी रही है। अगर हमारे पास संसाधन होते, तो पाकिस्तान की कब्जाकारी सेना को बहुत पहले हरा देते।” 

‘नकली नोट छापने’ वाले सीन पर भी आपत्ति

‘धुरंधर’ के एक दृश्य में बलोच कैरेक्टर्स द्वारा नकली नोट छापने की बात बताई गई है, जिस पर भी मीर यार बलोच ने विरोध जताया। उन्होंने कहा, “अगर बलोच गैंगस्टर्स के पास इतना पैसा होता, तो बलूचिस्तान में कभी गरीबी नहीं होती। यह ISI है, जो ड्रग्स, नकली नोट और हथियारों की तस्करी करती है।”

“मगरमच्छ पर भरोसा कर सकते हैं, बलूच पर नहीं”

फिल्म के एक संवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि यह बलूच संस्कृति के मूल्यों के बिल्कुल खिलाफ है। उन्होंने कहा, “हमारी संस्कृति में ‘एक गिलास पानी की कीमत 100 साल वफा’ वाली बात प्रसिद्ध है। बलोच कभी धोखा नहीं देते।”

मेकर्स को रिसर्च बढ़ाने की सलाह

मीर यार ने कहा कि बलोचिस्तान के इतिहास, संस्कृति और स्वतंत्रता आंदोलन पर बहुत कम रिसर्च की जाती है। उन्होंने सुझाव दिया कि मेकर्स भविष्य में ऐसी फिल्म बनाएं जो भारत और बलूचिस्तान के वास्तविक संबंधों, दोस्ती और पाकिस्तान के खिलाफ साझा संघर्ष को दिखाए।

जहां भारत में ‘धुरंधर’ लगातार सफलता बटोर रही है, वहीं बलूचिस्तान से उठी यह आपत्तियाँ फिल्म को नए विवादों में ले आई हैं। अब देखना होगा कि मेकर्स इस प्रतिक्रिया पर क्या कदम उठाते हैं और क्या फिल्म के कंटेंट को लेकर आगे कोई आधिकारिक बयान जारी किया जाता है। 

उत्तराखंड सरकार राज्य के 240 हाईस्कूल टॉपर्स को देशभर के प्रमुख वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों के शैक्षिक दौरे पर भेज रही है। इस “भारत दर्शन शैक्षिक भ्रमण” के तहत छात्र ISRO, SDSC श्रीहरिकोटा और भारत के अन्य प्रमुख तकनीकी विकास केंद्रों का दौरा करेंगे।

बीते दिनों मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इन छात्रों को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया और उनसे कहा कि वे अपनी यात्रा के अनुभवों के साथ-साथ सरकार की पहली बार हासिल की गई उपलब्धियों को भी अपनी डायरी में दर्ज करें।

दूसरा ‘भारत दर्शन शैक्षिक भ्रमण’ कार्यक्रम

यह कार्यक्रम उत्तराखंड बोर्ड हाईस्कूल परीक्षा 2025 के टॉप स्कोरर्स के लिए आयोजित किया गया है। मुख्यमंत्री कार्यालय (CMO) के अनुसार, छात्र अलग-अलग समूहों में देश के विभिन्न राज्यों का दौरा करेंगे। इस यात्रा का उद्देश्य प्रतिभावान छात्रों को भारत की विज्ञान–तकनीक, इतिहास और संस्कृति की प्रगति को करीब से समझने का अवसर देना है।

यह इस तरह का दूसरा सरकारी स्पॉन्सर्ड शैक्षिक भ्रमण है। पिछले सत्र 2024–25 में 156 छात्र भारत के प्रमुख वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों का भ्रमण कर चुके हैं।

छात्र किन-किन संस्थानों में जाएंगे?

इस वर्ष कुल 240 मेधावी छात्र यात्रा पर जा रहे हैं। वे ISRO, SDSC श्रीहरिकोटा, प्रो. यू.आर. राव सैटेलाइट सेंटर, विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर समेत देश के विभिन्न राज्यों के अन्य तकनीकी और वैज्ञानिक संस्थान जैसे देश के प्रमुख केंद्रों का भ्रमण करेंगे। 

यात्रा से पहले CM धामी का संदेश

छात्रों को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री धामी ने कहा कि वे केवल यात्रा अनुभव ही नहीं, बल्कि उत्तराखंड में पहली बार हासिल की गई उपलब्धियों को भी अपनी डायरी में दर्ज करें।

धामी ने अपनी सरकार की प्रमुख "पहली बार" उपलब्धियों का उल्लेख किया—

- देश में पहली बार UCC लागू करने वाला राज्य

- एंटी-कॉपीइंग कानून 

- राज्य मदरसा बोर्ड को समाप्त करने वाला पहला राज्य

- 10,000 एकड़ सरकारी जमीन अतिक्रमण से मुक्त कराना

- चार वर्षों में 27,000 युवाओं को नौकरियां देना

- उत्तराखंड के SDGs को पूरा करने की दिशा में बड़ी प्रगति

उन्होंने कहा कि छात्रों को इन उपलब्धियों को भी विस्तार से लिखना चाहिए।

नई तकनीक और ‘न्यू इंडिया’ का अनुभव मिलेगा

मुख्यमंत्री धामी ने कहा कि इन संस्थानों का दौरा छात्रों को यह समझने में मदद करेगा कि नया भारत कितनी तेज़ी से तकनीकी प्रगति कर रहा है। उन्होंने कहा कि किताबों से सीखना जरूरी है, लेकिन प्रत्यक्ष अनुभव समझ को कई गुना बढ़ा देता है।

धामी ने कहा— “इस शैक्षिक भ्रमण से छात्रों में टीमवर्क, सामाजिक कौशल और आत्मविश्वास का विकास होगा। वे इस यात्रा के अनुभवों को जीवनभर याद रखेंगे और देशभर में उत्तराखंड की संस्कृति, प्रकृति, खान–पान और पर्यटन के ब्रांड एम्बेसडर बनकर उभरेंगे।”

 

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एडइनबॉक्स: शैक्षिक समाचारों का भरोसेमंद स्रोत

एडइनबॉक्स शिक्षा जगत की खबरों की व्यापक कवरेज को समर्पित एक अग्रणी मंच है। यह आपके लिए एक जरूरी साधन है, जो आपके लक्ष्यों के संधान में आपकी मदद करता है क्योंकि यहां आपके लिए है:

विविधतापूर्ण सामग्री: एडइनबॉक्स दुनियाभर से शिक्षा के तमाम पहलुओं का समावेश करते हुए लेख, साक्षात्कार, वीडियो और पॉडकास्ट सहित विविध प्रकार की सामग्री उपलब्ध कराता है। चाहे आपकी रुचि के विषयों में के-12 शिक्षा, उच्च शिक्षा, एडटेक, या शैक्षिक नीतियां शामिल हों, एडइनबॉक्स पर आपको इससे संबंधित प्रासंगिक और महत्वपूर्ण सामग्री मिलेगी।

समय पर अपडेट: शिक्षा तेज गति से विकास कर रहा क्षेत्र है, जहां की नवीनतम गतिविधियों से अपडेट रहना हर किसी के लिए जरूरी है। और, एडइनबॉक्स वह मंच है जो शिक्षा जगत की हर नवीन जानकारियों को समय पर आप तक पहुंचाकर आपको अपडेट करता है। यह सुनिश्चित करता है कि आप इस क्षेत्र की हर गतिविधि को लेकर जागरूक रहें। चाहे वह ब्रेकिंग न्यूज हो या इसका गहन विश्लेषण, आप खुद को अपडेट रखने के लिए एडइनबॉक्स पर भरोसा कर सकते हैं।

विशेषज्ञ अंतदृष्टि: एडइनबॉक्स का संबंध शिक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञों और विचारवान प्रणेताओं से है। ख्यात शिक्षकों और शोधकर्ताओं से लेकर नीति निर्माताओं और उद्योग के पेशेवरों तक, आप इस मंच पर मूल्यवान अंतदृष्टि और दृष्टिकोण से परिचित होंगे जो आपको न सिर्फ जागरूक करता है बल्कि आपके निर्णय लेने की प्रक्रिया को भी धारदार बनाता है।

इंटरएक्टिव समुदाय: एडइनबॉक्स पर आप शिक्षकों, प्रशासकों, छात्रों और अभिभावकों के एक सक्रिय व जीवंत समूह के साथ जुड़ सकते हैं। इस मंच पर आप अपने विचार साझा करें, प्रश्न पूछें, और उन विषयों पर चर्चा में भाग लें जो आपके लिए महत्वपूर्ण हैं। समान विचारधारा वाले व्यक्तियों से जुड़ें और अपने पेशेवर नेटवर्क का भी विस्तार करें।

यूजर्स के अनुकूल इंटरफेस: एडइनबॉक्स की खासियत है, यूजर्स के अनुकूल इंटरफेस। यह आपकी रुचि की सामग्री को नेविगेट करना और खोजना आसान बनाता है। चाहे आप लेख पढ़ना, वीडियो देखना या पॉडकास्ट सुनना पसंद करते हों, आप एडइनबॉक्स पर सब कुछ मूल रूप से एक्सेस कर सकते हैं।

तेजी से बदलते शैक्षिक परिदृश्य में, इस क्षेत्र की हर गतिविधि से परिचित होना निहायत जरूरी है। एडइनबॉक्स एक व्यापक मंच प्रदान करता है जहां आप शिक्षा जगत के नवीनतम समाचारों तक अपनी पहुंच बना सकते हैं, विशेषज्ञों और समूहों के साथ जुड़ सकते हैं और शिक्षा के भविष्य को आकार देने वाली नई पहल को लेकर अपडेट रह सकते हैं। चाहे आप एक शिक्षक हों जो नवीन शिक्षण पद्धतियों की तलाश में हों, नीतियों में बदलाव पर नजर रखने वाले व्यवस्थापक हों, या आपके बच्चों की शिक्षा को लेकर चिंतित माता-पिता, एडइनबॉक्स ने हर किसी की चिंताओं-आवश्यकताओं को समझते हुए इस मंच को तैयार किया है। आज ही एडिनबॉक्स पर जाएं और शिक्षा पर एक वैश्विक विमर्श में शामिल हों!

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